रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश || Rashmirathi Khand Kavya ka Saransh

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रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश || Rashmirathi Khand Kavya ka Saransh

रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश ||  Rashmirathi Khand Kavya ka Saransh

रश्मिरथी खंडकाव्य से संबंधित जितने भी प्रश्न आपके बोर्ड परीक्षा में पूछे गए हैं। उन सभी प्रश्नों को यहां पर सरल भाषा में लिखा गया है। सभी प्रश्न आपको यहीं पर मिलेंगे जैसे कि सारांश (कथावस्तु), प्रमुख पात्र का चरित्र चित्रण, नारी पात्र का चरित्र चित्रण, विशेषताएं, श्री कृष्ण का चरित्र चित्रण, प्रथम सर्ग से लेकर सप्तम सर्ग (अंतिम सर्ग) तथा अपने शब्दों में इत्यादि प्रश्नों के उत्तर।

रश्मिरथी खंडकाव्य -

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प्रश्न - 'रश्मिरथी' की कथावस्तु (सारांश) की समीक्षा कीजिए।

उत्तर - 'रश्मिरथी' दिनकर जी का एक सफल खंडकाव्य है। 'रश्मिरथी' की कथावस्तु में कर्ण के जीवन की कुछ मुख्य घटनाओं को लेकर कर्ण के आदर्श चरित्र की महत्वपूर्ण झांकी प्रस्तुत की गई है कि कहीं भी कथा के प्रवाह में बाधा नहीं पड़ती है और वे सामूहिक रूप से कर्ण के चरित्र को आलोकित करने में समर्थ होती है।

सर्गों में विभाजन –

'रश्मिरथी' काव्य के कथानक को सात सर्गों में विभाजित किया गया है। विभाजन में शास्त्रीय पद्धति का पालन किया गया है। प्रत्येक सर्ग में एक प्रमुख घटना रखी गई है। प्रत्येक सर्ग में प्रायः एक छंद का प्रयोग हुआ है। अंत में छंद परिवर्तन होता है। सर्ग के अंतिम पद्य में अग्रिम सर्ग की कथा का संकेत मिलता है।

कथा संगठन –

कथा संगठन की दृष्टि से 'रश्मिरथी' की कथावस्तु सर्वथा सफल है। आदि से अंत तक सब घटनाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई, क्रमशः विकसित होती चलती हैं। विस्तृत और बिखरे हुए कथा प्रसंगों को इस कौशल से गूंथा गया है कि कहीं भी स्थान-काल का व्यवधान कथा के प्रवाह को भंग नहीं कर पाता है। प्रत्येक घटना नायक कर्ण के चरित्र को प्रकाशमान करती चलती है। उसके चरित्र की प्रत्येक विशेषता निखर कर सामने आती है।

शस्त्र-विद्या समारोह में जाति के आधार पर कर्ण का अपमान, परशुराम द्वारा जाति के आधार पर ही सांप देकर आश्रम से निकाला जाना, कर्ण की दानवीरता का सहारा लेकर इंद्र द्वारा छल से उसके कवच कुंडल का दान ले लेना, श्री कृष्ण और कुंती के द्वारा कर्ण को दुर्योधन के पक्ष से तोड़ने का प्रयत्न, श्री कृष्ण द्वारा कूटनीति से घटोत्कच पर एकघ्नि शक्ति का प्रयोग करा देना और अंत में निहत्थे कर्ण पर अर्जुन द्वारा बाणवर्षा करके बध करा देना – इस सभी घटनाओं को इस कौशल से संजोया गया है कि कर्ण के वीरता, त्याग, मैत्री, दानवीरता, साहस, धार्मिकता, कर्तव्यपरायणता, सत्यवादिता आदि गुणों के साथ उसका अद्भुत शील चमक उठा है। ये सभी घटनाएं इतनी मार्मिक हैं कि जिनमें पाठक को रस विभोर करने की क्षमता है।

प्रश्न - 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा

'रश्मिरथी' खंडकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा

'रश्मिरथी' खंडकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा

'रश्मिरथी' खंडकाव्य के प्रारंभिक तीन सर्गों की कथा संक्षेप में लिखिए

अथवा

'रश्मिरथी' खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा

'रश्मिरथी' के पंचम सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।

अथवा

'रश्मिरथी' काव्य के सातवें (अंतिम) सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

अथवा

'रश्मिरथी' खंडकाव्य का कथानक (सारांश) संक्षेप में लिखिए।


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उत्तर - रश्मिरथी खंडकाव्य के अंतर्गत सभी सर्गों की कथा संक्षेप में दी गई है।

प्रथम सर्ग –

तेज की साक्षात मूर्ति महान वीर कर्ण का जन्म कुंती की कुमारावस्था में सूर्य के वरदान से हुआ था। लोकापवाद के भय से कुंती ने इस शिशु को नदी में बहा दिया। वहां से वह दुर्योधन के सारथी अधिरथ को मिल गया। अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने ही इस शिशु का पालन किया इसलिए समाज में वह सूत-पुत्र, अधिरथ सुत अथवा राधेय नाम से ही जाना जाता है।

द्रोणाचार्य द्वारा अपने शिष्यों की शास्त्र-विद्या का प्रदर्शन करने हेतु आयोजित उत्सव में कर्ण ने अचानक पहुंचकर अपने रण कौशल का प्रदर्शन कर अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा।

कर्ण के अपूर्व बल, शस्त्र कौशल आदि गुणों को देखकर दुर्योधन ने कर्ण से प्रभावित होकर उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। यहीं से कर्ण और दुर्योधन की गाढ़ी मित्रता का सूत्रपात होता है और यहीं से उसके हृदय में द्रोणाचार्य के शिष्य अर्जुन के प्रति वैर का अंकुर पैदा हो जाता है।

विवाद की स्थिति में ही उत्सव समाप्त हुआ। कौरव अंगेश कर्ण को साथ लेकर जयगान करते हुए अपने महल की ओर चल दिए।

द्वितीय सर्ग –

कर्ण की गुरु भक्ति से परशुराम जी अत्यंत प्रसन्न थे। परंतु एक दिन एक विचित्र घटना घटित हुई। माघ का शीतकाल, पत्तों से छन-छन कर आनंददायक धूप पड़ रही थी और कर्ण की जंघा पर सिर रखे सो रहे थे उसके गुरु – महामुनी परशुराम। अचानक एक कीड़ा कर्ण की जंघा को काटता हुआ मांस में घुस गया। खून की धार बह चली। गुरु की निद्रा भंग होने के भय से वह पीड़ा सहकर भी हिला तक नहीं। लेकिन खून की धारा के स्पर्श से परशुराम जी की नींद खुल गई।

कर्ण की सहनशक्ति को देखकर परशुराम जी चकित हो उठे। उन्हें कर्ण के ब्राह्मण होने में संदेह हो गया। उन्होंने कर्ण से पूछा – 'बता तू कौन है? क्षत्रिय ही इतना कष्ट सहन कर सकता है।' कर्ण ने गुरु के चरणों में गिरकर अपना सही परिचय दिया। सारा भेद खुल गया। क्रुद्ध परशुराम ने अपने प्रिय शिष्य को कोई दण्ड तो नहीं दिया किंतु शाप दे दिया कि जो विद्या उन्होंने उसे सिखायी है, उसे वह समय पर भूल जाएगा – वह समय पर काम नहीं आएगी।

तृतीय सर्ग –

पांडवों के वनवास एवं अज्ञातवास का समय समाप्त हुआ। वन की कठिनाइयों को झेलकर उनका पुरुषार्थ और चमक उठा था। दुर्योधन ने उन्हें राज्य में भाग देना अस्वीकार कर दिया अतः अब युद्ध के अतिरिक्त और कोई चारा न था। युद्ध के विनाश से बचने के लिए श्री कृष्ण दुर्योधन के पास संधि का प्रस्ताव लेकर स्वयं हस्तिनापुर गए और पांडवों को केवल 5 गांव देने का प्रस्ताव रखा किंतु दुर्योधन ने सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से इनकार कर दिया। श्री कृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास भी किया गया।

हस्तिनापुर वापस लौटते समय श्री कृष्ण ने कर्ण से समस्त राज्य एवं वैभव लेकर दुर्योधन का साथ छोड़ देने का आग्रह किया ताकि विश्व भावी युद्ध के संकट से बच सके। किंतु कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता को निभाने के लिए श्री कृष्ण के इस आग्रह को ठुकरा दिया और कहा कि मित्रता के लिए मैं इस धरती का राज्य तो क्या, बैकुंठ को भी न्यौछावर कर दूंगा।

चतुर्थ सर्ग –

कर्ण महान दानवीर था। एक दिन कर्ण गंगा में खड़े होकर सूर्य का ध्यान कर रहा था। सहसा लताओं की ओट से विप्र वेषधारी इंद्र याचक के रूप में उपस्थित हुए। कर्ण ने कहा, "चाहे धरती, आकाश, ध्रुव तारा आदि सब विचलित हो जाए पर कर्ण अपने वचन से नहीं डिग सकता। आप नि:संकोच होकर जो चाहे मांग ले।'' तब ब्राह्मण ने कर्ण के जन्मजात कवच और कुंडल दान में मांग लिए और कर्ण ने सहर्ष उन्हें कवच-कुंडल दान कर दिए।

कर्ण की दानवीरता से प्रसन्न होकर इंद्र ने उसे वह अमोघ एकघ्नी शर प्रदान किया जिसका केवल एक बार ही प्रयोग हो सकता था। शर को देकर इंद्र चले गए।

पंचम सर्ग –

महाभारत के युद्ध की तैयारी हो चुकी थी। कर्ण का प्रण था कि या तो अर्जुन जीवित रहेगा या कर्ण, दोनों में से एक की मृत्यु अवश्य होगी। कुंती चिंतित थी। कर्ण मरे या अर्जुन – पुत्र कुंती का ही जाएगा। चिंता में डूबी हुई कुंती कर्ण के पास गई। कर्ण ने कुंती के आगमन का कारण पूछा तो कुंती ने कहा, ''मैं तुम्हारी मां, तुमसे याचना करने आई हूं कि तुम दुर्योधन का पक्ष छोड़कर अपने छोटे भाइयों के साथ आकर उनकी रक्षा करो और विजयश्री प्राप्त कर राज्य का भोग करो।

कर्ण स्पष्ट कह देता है – "कर्ण राधा के सिवाय किसी को अपनी मां नहीं मानता। दुर्योधन को छोड़ना भी उसके लिए संभव नहीं है। कर्ण कहता है, "यदि युद्ध में मैं मर गया तो पांडव, उसके 5 पुत्र रहेंगे ही, और यदि अर्जुन मर गया तो भी उसके पास पुत्र रहेंगे।

षष्ठ सर्ग – 

महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ। दसवे दिन कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह धराशायी होकर शरशैया पर लेट गए। कर्ण भी युद्ध में उतरने के लिए भीष्म पितामह का आशीर्वाद लेने गया। भीष्म के चरणों की धूल लेकर कर्ण ने गरजते हुए युद्ध में प्रवेश किया। अगले दिन द्रोणाचार्य को सेनापति बनाया गया।

कर्ण और अर्जुन के बीच बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। कौरवों ने विजय की लालसा में धर्म की नीति का त्याग कर दिया। अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु तथा भूरिश्रवा को अधर्म नीति से मार दिया।

कृष्ण ने भीम के पुत्र असुर घटोत्कच को युद्ध में उतार दिया। घटोत्कच द्वारा कौरव सेना के भयानक संहार को देखकर दुर्योधन घबरा गया। उसने कर्ण से घटोत्कच पर इंद्र द्वारा दिए गए दिव्य अस्त्र का प्रयोग करने के लिए आग्रह किया। विवश होकर कर्ण ने उस अमोघ अग्निशर का प्रयोग करना पड़ा जिससे अर्जुन के वध के लिए सुरक्षित रख रखा था। इस प्रकार श्रीकृष्ण की योजना सफल हुई। घटोत्कच तो मर गया किंतु अर्जुन बच गया।

सप्तम सर्ग –

चौदहवें दिन द्रोणाचार्य भी वीरगति को प्राप्त हुए, तब कर्ण को कौरव दल का सेनापति बनाया गया। कर्ण ने भयंकर नरसंहार किया। कुछ ही क्षणों बाद अर्जुन का रथ कर्ण के सामने आ गया। दोनों ओर से घनघोर बाण बरसा आरंभ हुई। कर्ण के कवचहींन शरीर पर भी अर्जुन के बाण बेकार हो जाते थे। कर्ण के तेज बाणों के प्रयास से मूर्छित होकर अर्जुन रथ में गिर पड़े। अर्जुन कुछ ही क्षणों में चेतना में आकर पुनः भीषण बाण वर्षा करने लगे। श्री कृष्ण ने अर्जुन से अपना समस्त रणकौशल दिखाने के लिए उत्साहित किया।

कर्ण ने शल्य से कहा कि वे उसका रथ अर्जुन के रथ के पास ले चले परंतु अर्जुन के रथ के पास पहुंचते ही कर्ण का रथ खून की दलदल में धंस गया। कर्ण के बहुत जोर लगाने पर भी पहिया दलदल से निकल ही नहीं पा रहा था। तभी श्री कृष्ण ने कर्म की विपत्ति में फंसा हुआ, शस्त्रहीन देखकर अर्जुन के तीक्ष्ण बाणों से कर्ण पर प्रहार करने को कहा। श्री कृष्ण का आदेश पाकर अर्जुन ने धर्म की नीति को त्यागकर निहत्थे कर्ण पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। अर्जुन का एक तीक्ष्ण बाण लगा और कर्ण का सिर धरती पर गिर गया।

प्रश्न - 'रश्मिरथी' के आधार पर इसके मुख्य पात्र (नायक) कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।

अथवा

'रश्मिरथी' में व्यक्त कर्ण के मानसिक अंतर्द्वंद (संवेदना) को स्पष्ट कीजिए।

अथवा

रश्मिरथी खंडकाव्य के आधार पर कर्ण के व्यक्तित्व एवं चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

अथवा

रश्मिरथी खंडकाव्य में कर्ण के किन गुणों पर कवि ने विशेष रूप से प्रकाश डाला है? लिखिए।

उत्तर - महाभारत काल का अप्रतिम योद्धा, कुंती की दिव्य संतान, महान दानवीर कर्ण 'रश्मिरथी' काव्य का नायक है। कर्ण के चरित्र में हम निम्नलिखित विशेषताएं पाते हैं–

वर्ण भेद तथा कुल भेद का शिकार –

कर्ण उच्चकुलीन अनेक श्रेष्ठ गुणों का आगार तथा सर्वप्रशंसित वीर था किंतु समाज की जाति-भेद तथा कुलीनता की कुत्सित परंपराओं के कारण उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसके जीवन की सबसे बड़ी विडंबना ही यह रही कि प्रत्येक अवसर पर उसका तिरस्कार इसलिए हुआ कि वह राजपुत्र क्षत्रिय नहीं है।

अत्यंत तेजस्वी तथा शौर्य की प्रतिमा –

सूर्य का पुत्र कर्ण सूर्य के समान ही तेजस्वी तथा शौर्य की प्रतिमा है। उसके शरीर पर जन्मजात कवच और कुंडल अलौकिक आभा दिखाते हैं।

दृढ़ प्रतिज्ञ तथा वचन का पक्का –

कर्ण जो प्रतिज्ञा करता है, उसका दृढ़ता से पालन भी करता है। वह दुर्योधन को एक बार उसकी सहायता का वचन दे देता है और प्राण देकर भी उस वचन का पालन करता है। कर्ण ने कुंती को वचन दिया था कि वह युद्ध में अर्जुन को छोड़ किसी अन्य पांडव को नहीं मारेगा, इस वचन का वह मृत्युपर्यंत पालन करता है।

सच्चा मित्र –

कर्ण एक सच्चा मित्र है। वह एक बार दुर्योधन से मित्रता करता है और फिर अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उस मित्रता का पालन करता है। राज्य का लोभ और माता का प्यार भी उसकी मित्रता को डिगाने में समर्थ नहीं हो पाता है। वास्तव में कर्ण में वे सभी विशेषताएं हैं जो एक सच्चे आदर्श मित्र में होनी चाहिए।

श्रद्धालु गुरु-भक्त –

कर्ण के चरित्र में श्रद्धालु गुरु-भक्ति शिष्य का गुण भी पाया जाता है। वह अपने को ब्राह्मण कुमार बताकर परशुराम जी को गुरु बनाता है। उसकी श्रद्धा, विनय तथा गुरु-भक्ति से परशुराम जी अत्यंत प्रसन्न हैं। कर्ण की श्रद्धा, प्रेम, विनय और गुरु-भक्ति के कारण परशुराम जी उससे पुत्र से भी अधिक स्नेह करते हैं।

महान वीर –

कर्ण का चरित्र एक आदर्श वीर का चरित्र है। उसमें चारों प्रकार की वीरता का चरम उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। वह अजेय, युद्धवीर, अप्रतिम दानवीर तथा अनुपम दयावीर है।

कर्ण अपनी दानवीरता के लिए जगत में विख्यात है। सूर्यपूजा के समय वह याचक को मुंहमांगा दान देता था। उसके द्वार से खाली हाथ कोई लौटता ही नहीं था।

मानवीय सद्गुणों का आगार –

कर्ण का चरित्र श्रेष्ठ मानवीय सद्गुणों का आगार है। उस महान गुणागार की मृत्यु पर श्री कृष्ण को भी हार्दिक खेद होता है।

स्पष्ट है कि कर्ण का चरित्र एक आदर्श महापुरुष का चरित्र है। उसका चरित्र सर्वथा सजीव और मानवीय है।

प्रश्न - 'रश्मिरथी' काव्य के आधार पर मुख्य नारी पात्र (नायिका) कुंती का चरित्र-चित्रण कीजिए।

अथवा

'रश्मिरथी' के आधार पर कुंती की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर - कुंती पांडु की पत्नी वीरप्रसूता क्षत्राणी थी। 'रश्मिरथी' काव्य की वह मुख्य स्त्री पात्र है। कुंती के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं –

 वीरप्रसूता माता –

कुंती एक वीरप्रसूता माता है। उसने चार पुत्रों को जन्म दिया। कुंती के सभी पुत्र दिव्य संतान थीं और उन्हें दिव्य गुणों का समावेश था तथापि कर्ण का जन्म कुमारावस्था में होने के कारण कर्ण और कुंती दोनों को ही अनेक कष्ट सहने पड़े।

सामान्य नारी –

कुंती और सब कुछ होने से पहले नारी है। एक सामान्य नारी में जो विशेषताएं होती हैं वे सब कुंती के चरित्र में पाई जाती हैं। कुंती से एक छोटी सी भूल हो जाती है जिसके कारण मां-बेटे दोनों को जीवनभर पश्चाताप की आग में जलना पड़ता है।

 वात्सल्यमयी माता –

नारी का सबसे श्रद्धेय रूप उसका मातृरूप है। रश्मिरथी की कुंती वात्सल्यमयी माता के रूप में सामने आती है। कर्ण की इस प्रतिज्ञा को जानकर कुंती का ह्रदय कांप पड़ता है।

कर्ण कुंती की प्रार्थना को स्वीकार नहीं करता है किंतु कुंती अपने पुत्र को पाने के लिए सूतपत्नी राधा के पैर पकड़ने को तैयार है। कर्ण कुंती को कटु बातें कहकर उसके हृदय को घायल करता है किंतु कुंती के हृदय में फिर भी वात्सल्य और ममता की नदी लहराती है।

बुद्धिमती तथा वाक्पटु –

कुंती एक बुद्धिमती चतुर नारी है। यह अवसर को पहचानने तथा दूरगामी परिणाम का अनुमान करने में पूर्णतः समर्थ है। कर्ण-अर्जुन युद्ध का निश्चय जानकर वह एकदम समुचित पग उठाती है।

कर्ण से वार्तालाप करते समय उसकी वाक्पटुता देखने में आती है। वह कर्ण को अनुजों की रक्षा के लिए प्रेरित करती है।

वह कर्ण को बड़ी चतुराई से राज्य का प्रलोभन देती है और फिर भी उसे लोभ में न आता देख वह उसकी दानवीरता को ललकारती है।

अपनी अद्भुत वाक्पटुता के बल पर वह भले ही कर्ण को अपने पक्ष में नहीं कर सकी किंतु अर्जुन के अतिरिक्त अपने चार पुत्रों की सुरक्षा का वचन तो कर्ण से प्राप्त कर ही लेती है।

स्पष्ट है कि 'रश्मिरथी' काव्य में कुंती का केवल मातृरूप ही उभर कर सामने आता है – माता के रूप में कुंती का चरित्र अत्यंत सजीव, मानवीय तथा स्वभाविक है।

प्रश्न - 'रश्मिरथी' के निरूपित कृष्ण के चरित्र की विशेषताएं बताइए।

अथवा

'रश्मिरथी' के श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर - रश्मिरथी खंडकाव्य में श्रीकृष्ण प्रमुख पात्र हैं। इस काव्य में कृष्ण के जीवन का उतना ही अंश प्रकाश में आता है जितना कर्ण से संबंधित है तथापि इतने में ही उनके चरित्र की पर्याप्त झलक मिल जाती है।

ईश्वरीय शक्ति –

श्रीकृष्ण के चरित्र में अलौकिक ईश्वरीय शक्ति के दर्शन होते हैं। वे दुर्योधन के पास संधि का प्रस्ताव लेकर स्वयं जाते हैं। दुर्योधन उनके संधि प्रस्ताव को ठुकराकर उन्हें बंदी बनाने का प्रयत्न करता है। उस समय श्रीकृष्ण विराट रूप धारण कर अपनी अलौकिक ईश्वरीय शक्ति का परिचय देते हैं।

मानव जाति के रक्षक तथा शांति दूत –

श्रीकृष्ण मानव मात्र का कल्याण चाहने वाले शांति दूत के रूप में सामने आते हैं। युद्ध के परिणाम स्वरूप असंख्यजनों का संहार होगा, जन-धन की भारी क्षति होगी, इसी बात को ध्यान में रखकर वे दुर्योधन के पास संधि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाते हैं।

जब दुर्योधन ने संधि प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने कर्ण को समझाकर संसार को युद्ध की विभीषिका से बचाने का यत्न किया। उन्होंने कर्ण से कहा –

''यश, मुकुट, मान, सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे।

कौरव को तज रण रोक सके, भू का हर भावी शोक सके।।''

युद्ध विद्या के ज्ञाता –

श्रीकृष्ण रणकला के पूर्ण ज्ञाता हैं। यद्यपि वे युद्ध में स्वयं शस्त्र नहीं उठाते तथापि पांडवों को वे ऐसे-ऐसे दांव-पेंच बताते हैं कि कौरव अधिक शक्तिशाली होते हुए भी पराजित हो जाते हैं। कर्ण का अर्जुन द्वारा बध तथा अर्जुन की विजय श्री कृष्ण की रण-नीति का ही परिणाम थी। कवच और कुंडल के रहते कर्ण का वध असंभव था अतः इंद्र द्वारा कवच-कुंडल का दान मांगना अर्जुन की विजय का सफल प्रयास था। कृष्ण ने घटोत्कच को युद्ध में उतारा, जिससे कर्ण को विवश होकर अमोघ अग्निशर का प्रयोग घटोत्कच पर करना पड़ा। इस प्रकार कृष्ण की रणनीति सफल हो गई और अर्जुन का जीवन सुरक्षित हो गया।

निर्भय स्पष्टवक्ता –

श्री कृष्ण निर्भय एवं स्पष्टवक्ता व्यक्ति हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी भय उन्हें स्पर्श नहीं कर पाता है। बे निर्भय होकर सच्ची बात को स्पष्ट रूप से कह देते हैं। दुर्योधन की सभा में संधि प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने पर वे दुर्योधन को स्पष्ट कह देते हैं –

''हित वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना।

तो ले मैं भी अब जाता हूं, अंतिम संकल्प सुनाता हूं।

याचना नहीं अब रण होगा, जीवन जय या कि मरण होगा।"

कूटनीतिज्ञ –

रश्मिरथी का कृष्ण महान कूटनीतिज्ञ है। वह पांडवों की ओर से कूटनीति पूर्ण कार्य संपन्न करते हैं। दुर्जेय शक्ति कर्ण को दुर्योधन से पृथक करने की चेष्टा करते हैं, कर्ण को राज्य प्रलोभन तक दे डालते हैं।

गुणग्राहक –

श्रीकृष्ण स्वयं गुणशील के निदान हैं; अतः वे दूसरों के गुणों के ज्ञाता तथा गुणग्राही भी हैं। शत्रु में भी यदि गुण हैं तो वे उसकी भी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं।

कर्ण के रणकौशल को देखकर कृष्ण के नेत्र निहाल हो जाते हैं –

''इस पुरुष सिंह का समर देख, मेरे तो हुए निहाल नयन।''

कर्ण के गुणों पर मुग्ध होकर ही श्री कृष्ण उसकी मृत्यु कारण युधिष्ठिर को कर्ण का द्रोण और भीष्म के समान सम्मान करने की सलाह देते हैं।

निष्कर्ष –

इस प्रकार 'रश्मिरथी' काव्य में श्री कृष्ण का चरित्र अद्वितीय वीर, रणनीति कुशल, निर्भीक वक्ता, गुणग्राही महापुरुष तथा ईश्वरीय अवतार के रूप में चित्रित हुआ है। वे शांति दूत, शील और मानवता के संस्थापक तथा आदर्श महापुरुष हैं।

People Also Asked -

1. रश्मिरथी खंडकाव्य के लेखक कौन हैं?

उत्तर - रश्मिरथी खंडकाव्य के लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी हैं।

2. रश्मिरथी शब्द का अर्थ क्या है?

उत्तर - रश्मिरथी शब्द का अर्थ होता है "सूर्यकिरण रूपी रथ का सवार"।

3. रश्मिरथी कितने वर्गों में विभाजित है?

उत्तर - रश्मिरथी खंडकाव्य का अब 7 सर्गों में विभाजित किया गया है।

4. रश्मिरथी काव्य में राधा कौन है?

उत्तर - अधिरथ की धर्मपत्नी का नाम राधा था। राधा के द्वारा पालन-पोषण होने के कारण ही सूर्यपुत्र कर्ण का एक और नाम राधेय भी है।

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