सूत पुत्र नाटक का सारांश || Sut Putra Natak Ka Saransh

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सूत पुत्र नाटक का सारांश || Sut Putra Natak Ka Saransh

सूत पुत्र नाटक का सारांश || Sut  Putra Natak Ka Saransh 

सूत पुत्र नाटक से संबंधित जो भी प्रश्न बोर्ड परीक्षा में पूछे जाते हैं सभी प्रश्न आपको यहीं पर मिलेंगे सारांश,कथावस्तु,चरित्र चित्रण इत्यादि।

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सूत-पुत्र नाटक

प्रश्न - 'सूत-पुत्र' की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

अथवा

'सूत-पुत्र' नाटक का कथानक (कथासार/सारांश) अपने शब्दों में लिखिए।


उत्तर - 

प्रथम अंक –

'सूत-पुत्र' नाटक के प्रथम अंक में प्रारंभ में महर्षि परशुराम के आश्रम का दृश्य परिलक्षित होता है। श्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम पर्वतों के बीच अपने आश्रम के समीप तपस्यारत हैं। परशुराम जी का दृढ़ संकल्प है कि वे केवल ब्राह्मणों को ही धनु र्विद्या सिखाएंगे। कर्ण सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने की आकांक्षा लिए हुए परशुराम जी के आश्रम में जाता है और स्वयं को मिथ्या रूप से ब्राह्मण बताकर परशुराम जी से धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करने लगता है। 1 दिन परशुराम जी कर्ण की जांघ पर सिर रखकर सो रहे थे कि एक विषैले कीट ने कर्ण की जांघ में काट लिया जिससे उसकी जांघ से रक्त प्रवाहित होने लगा। गुरु की निद्रा भंग होने के भय से कर्ण उस कष्ट को सहन करता रहा किंतु कर्ण के रक्त की उष्णता से परशुराम की निद्रा भंग हो गयी और उन्होंने संदेह व्यक्त किया कि ऐसा धैर्य तो केवल क्षत्रियों में ही हो सकता है। उन्होंने कर्ण से पूछा कि तुम वास्तव में कौन हो? कर्ण ने संपूर्ण सत्य को व्यक्त कर दिया। इस पर परशुराम ने क्रुद्ध होकर कर्ण को शाप दिया कि तुम अपने अंतिम समय में इस विद्या को भूल जाओगे और इसका प्रयोग नहीं कर सकोगे।

द्वितीय अंक –

द्वितीय अंक में द्रौपदी के स्वयंवर की कथा है। इसमें राजकुमार और दर्शक एक भव्य मंडप में अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। खौलते तेल के कड़ाहे के ऊपर एक खंबे में निरंतर घूमते रहने वाले चक्र के ऊपर एक मछली रखी है जिसके नेत्र का भेदन तेल में पढ़ने वाले उसके प्रतिबिंब को देखकर करना है। राजा द्रुपद अपनी कन्या द्रौपदी के विवाह का निश्चय इस लक्ष्य-भेदन के उपरांत लक्ष्य-भेद करने वाले पुरुष के साथ करते हैं। अनेक राजकुमारों के असफल होने पर कर्ण भी लक्ष्य-भेद के लिए जाता है परंतु कर्ण के परिचय से असंतुष्ट होने के कारण द्रुपद उसे इस प्रतियोगिता के अयोग्य घोषित कर देते हैं। इसी बीच दुर्योधन कर्ण को अंगदेश का राजा नियुक्त कर देता है परंतु वह उसके क्षत्रियत्व एवं पात्रता को सिद्ध नहीं कर पाता है। इसके पश्चात ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन अपने भाइयों समेत वहां आते हैं और राजा द्रुपद की अनुमति प्राप्त कर लक्ष्य-भेद में सफल हो जाते हैं। इस प्रकार द्रोपदी अर्जुन के गले में वरमाला डाल देती है। सभी लोग धीरे-धीरे जाने लगते हैं और अंत में कर्ण तथा दुर्योधन सूने मंडप में अकेले रह जाते हैं। दुर्योधन कर्ण से द्रोपदी को बलपूर्वक छीनने की बात कहता है परंतु कर्ण इससे सहमत नहीं होता है। परंतु दुर्योधन अर्जुन तथा भीम से संघर्ष करता है और अन्ततः घायल होकर कर्ण के पास वापस लौट आता है। वह कर्ण को बताता है कि ब्राह्मण वेशधारी अन्य कोई नहीं बल्कि अर्जुन और भीम हैं। अब दुर्योधन को विश्वास हो जाता है कि लाक्षागृह में पांडवों के वध की योजना असफल हो गई है।

तृतीय अंक – 

इस अंक का प्रारंभ कर्ण के नदी के तट पर सूर्योपासना करने से होता है। सूर्यदेव कर्ण की स्तुति पर वहां आते हैं और उसे भावी संकट के प्रति सचेत करते हैं। वे कर्ण को दिव्य कवच और कुंडल प्रदान करते हैं। यह अभेद्य कवच है। सूर्यदेव कर्ण को बताते हैं कि इंद्र छल द्वारा तुम्हारा कवच-कुंडल प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे। सूर्यदेव कर्ण को माता के नाम के अतिरिक्त उसके पूर्व वृतांत का वर्णन करते हैं। इसके पश्चात वे चले जाते हैं। कुछ समय पश्चात इंद्र ब्राह्मण वेश में कर्ण के पास आकर दान में कवच-कुंडल मांग लेते हैं। कर्ण पूछता है कि आपको केवल कवच और कुंडल ही क्यों चाहिए? इंद्र इसका संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते हैं। कर्ण अपने कवच-कुंडल दान में दे देता है। इस पर इंद्र प्रसन्न होकर उसे एक अमोघ शक्ति प्रदान करते हैं। इंद्र के चले जाने के उपरांत कुंती गंगा तट पर आती है और उसे पांडवों का बड़ा भाई होने का रहस्य बताती है‌। वह कर्ण से पांडवों का वध ना करने का वचन लेना चाहती है। कर्ण ऐसा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है परंतु आश्वस्त करता है कि वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी अन्य पांडव का वध नहीं करेगा। कुंती कर्ण से दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए भी आग्रह करती है परंतु कर्ण इसे अस्वीकार कर देता है। अन्ततः कुंती वहां से चली जाती है।

चतुर्थ अंक –

इस अंक की कथा कुरुक्षेत्र की रणभूमि से प्रारंभ होती है। इसमें कर्ण की दानवीरता, दृढ़प्रतिज्ञता, बाहुबल आदि गुणों का वर्णन है। एक ओर श्री कृष्ण और अर्जुन तथा दूसरी ओर कर्ण और शल्य युद्धक्षेत्र में दिखाई देते हैं। शल्य बार-बार अपशब्दों द्वारा कर्ण को हतोत्साहित करते हैं। कर्ण और अर्जुन का युद्ध होता है। कर्ण द्वारा बाण मारे जाने पर अर्जुन का रथ थोड़ा-सा पीछे हट जाता है जिस पर कृष्ण कर्ण की प्रशंसा करते हैं। अर्जुन इससे रूष्ट होता है। तब श्रीकृष्ण बताते हैं कि तुम्हारे रथ पर हनुमान जी स्वयं पताका के ऊपर, शेषनाग पहियों से लिपटकर और मैं त्रैलोक्य का भार लेकर तुम्हारे रथ पर बैठा हूं। फिर भी कर्ण तुम्हारे रथ को पीछे हटा देता है तो कर्ण वास्तव में प्रशंसनीय है।

रणक्षेत्र में कर्ण के रथ का पहिया दलदल में फंस जाता है। कर्ण रथ का पहिया निकालने के लिए प्रयास करता है। इसी समय अर्जुन निहत्थे कर्ण को मर्मान्तक रूप से घायल कर धराशायी कर देता है। इसके पश्चात युद्ध बंद हो जाता है।


श्री कृष्ण कर्ण की दानशीलता और प्रतिज्ञाबद्धता की प्रशंसा करते हैं। कर्ण की परीक्षा लेने हेतु श्री कृष्ण और अर्जुन घायल कर्ण के पास जाकर उससे सोना मांगते हैं। कर्ण अपने स्वर्णजटित दांत को तोड़कर ब्राह्मण वेशधारी कृष्ण को दे देता है। श्री कृष्ण और अर्जुन अपना छद्‌म त्यागकर वास्तविक रूप में आ जाते हैं। श्री कृष्ण कर्ण को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अर्जुन कर्ण के चरण स्पर्श करता है। इस प्रकार संपूर्ण नाटक का अंत हो जाता है।

प्रश्न - 'सूत-पुत्र' नाटक के आधार पर नायक या प्रमुख पात्र (कर्ण) का चरित्र-चित्रण कीजिए।

अथवा


'सूत-पुत्र' नाटक का जो पात्र आपको सबसे अधिक प्रभावित करता है, उसका चरित्र-चित्रण कीजिए।


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उत्तर - 'सूत-पुत्र' नाटक का प्रमुख पात्र कर्ण है। वह इस नाटक का नायक है। कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पायी जाती हैं।

दिव्य संतान –

कर्ण जीवनभर अपनी असवर्णता के कारण तिरस्कृत, अपमानित और दु:खी रहा। समाज में वह दुर्योधन के सारथी अधिरथ और उसकी पत्नी राधा का पुत्र समझा जाता था, वास्तव में वह परम तेजस्वी सूर्य देव और क्षत्राणी कुंती का पुत्र था।

तेजस्वी और प्रतिभाशाली –

कर्ण का व्यक्तित्व प्रतिभाशाली है। वह सूर्य के समान तेजस्वी है। कर्ण ऐसा पहला व्यक्ति है जिसके तेजस्वी रूप से दुर्योधन जैसा अभिमानी व्यक्ति भी प्रभावित हुआ। द्रौपदी स्वयंवर में कर्ण को पहली बार देखकर ही दुर्योधन उससे प्रभावित हो जाता है। अपना मित्र बनाने के लिए वह उसे अंग देश का राजा घोषित कर देता है।

महान योद्धा –

कर्ण एक महान योद्धा है। महाभारत के युद्ध में उसकी गणना बड़े-बड़े वीरों में होती है। भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के पश्चात उसी को कौरव-दल का सेनापति नियुक्त किया जाता है। अनुपम धनुर्धारी अर्जुन भी उसे पराजित करने में समर्थ नहीं हो पाता है।

युद्ध में अर्जुन भी उसे तब घायल कर पाता है जब वह खाली हाथ अपने रथ को कीचड़ से निकालने में लगा होता है। युद्ध विद्या को वह अपना जीवन समझता है।

दृढ़-प्रतिज्ञ –

कर्ण अपनी प्रतिज्ञा का पक्का है। उसने एक बार जो प्रतिज्ञा कर ली, उसका पूर्ण पालन किया। प्रतिज्ञा भंग करना वह किसी भी दशा में उचित नहीं समझता। जब परशुराम जी कर्ण को उसकी प्रतिज्ञा स्मरण कराते हैं, तो वह कहता है –


"मुझे यह बात भली-भांति स्मरण है गुरुदेव! आप स्मरण न दिलाते, तब भी मैं उस प्रतिज्ञा का जीवनभर पालन करता।"

सच्चा मित्र – 

कर्ण एक सच्चे मित्र के रूप में चित्रित हुआ है। वह दुर्योधन से मित्रता करता है और उसका जीवनभर निर्वाह करता है। यह मित्रता द्रौपदी के स्वयंवर में होती है, जिसका प्रतिफल वह साथ के साथ द्रोपदी का विवाह दुर्योधन के साथ करवा देना चाहता है।

कर्ण जानता है कि दुर्योधन अन्याय का पक्षधर है। कुंती से उसे यह भी ज्ञात हो जाता है कि पांडव उसके भाई हैं परंतु दुर्योधन से एक बार मित्रता कर ली तो चाहे कुछ भी हो, प्राण भी चले जाएं, उसकी मित्रता का वह आजीवन निर्वाह करना अपना धर्म समझता है। कुंती से वह साफ कहता है –


"उन्होंने मुझे रथचालक सूत से शासक बनाकर क्षत्रिय के समान मान दिलाया। मैं आज जो भी हूं, उन्हीं के अनुग्रह से हूं। मैं उनका पक्ष नहीं त्याग सकता।"

दानवीर –

कर्ण के चरित्र की एक बड़ी विशेषता उसकी दानवीरता है। वह ऐसा दानवीर है कि जिसके सम्मुख पहुंचकर कोई याचक खाली हाथ वापस नहीं लौटता। इंद्र ब्राह्मण का रूप बनाकर उससे वह कवच-कुंडल दान में मांग लेता है, जो उसकी रक्षा के अमोघ साधन थे।

देवराज उसकी दानवीरता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-


"सेवा तो तुम मेरी बहुत कर चुके हो कर्ण! जैसी उदारता और दानशीलता तुमने मेरे प्रति प्रदर्शित की है, वैसी संभवत: किसी ने भी न की होगी।"

सारांश यह है कि कर्ण का चरित्र एक तेजस्वी योद्धा, महत्वाकांक्षी तथा आदर्श महापुरुष का चरित्र है। वह सच्चा मित्र तथा अपनी बात का धनी है। उससे त्याग, तपस्या और कर्तव्यपरायणता की प्रेरणा मिलती है।

प्रश्न - 'सूत-पुत्र' नाटक के आधार पर इसके नारी पात्र कुंती का चरित्र-चित्रण कीजिए।

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उत्तर - 'सूत-पुत्र' नाटक में कुंती एकमात्र नारी पात्र है। कुंती का चरित्र एक आदर्श महिला का चरित्र है। उसके जीवन में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं।

प्रभावशाली व्यक्तित्व –

कुंती का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली है। यद्यपि वह अब 50 वर्ष की प्रौढ़ अवस्था में है और विधवा भी है, तथापि बहुत सुंदर दिखाई पड़ती है। उसके काले लंबे बाल और सफेद रेशमी साड़ी उसके सौंदर्य में और वृद्धि कर देती है। उसके मुख पर अपूर्व सौम्यता है।

कोमल हृदय नारी –

कुंती के चरित्र में नारीगत विशेषताएं विशेष रूप से उभरी हैं। स्त्रियां स्वभाव से ही कोमल ह्रदय होती हैं। कुंती में यह गुण विशेष रूप से पाया जाता है। नारी का मातृ रूप सभी के लिए स्नेहिल और वंदनीय होता है। कुंती कर्ण की माता है, किंतु जब कर्ण अन्य नारी के पुत्र के रूप में उसे अपना परिचय देता है, तो उसे बहुत दु:ख होता है। उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

सेवा-भाव –

सेवा-कार्य जो नारी कर सकती है, वह पुरुष नहीं कर सकता। कुंती के चरित्र में यह विशेषता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। जब वह किशोर अवस्था में ही थी, दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में ठहरे। कुंती ने उन महात्मा की इतनी सेवा की कि वे प्रसन्न हो गए और बोले–

"बालिका! मैं तेरी सेवा से उद्धार पाने के लिए देव आह्वान का मंत्र देना चाहता हूं।" और उन्होंने सूर्य, धर्मराज, इंद्र, वायु तथा अश्विनी कुमारों के 'आह्वान' मंत्र उसे सिखा दिए।

स्वाभिमानिनी –

कुंती महाराज पांडु की पत्नी और युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन सरीखे पुत्रों की माता है। अपने कुल और गुणों के अनुरूप उसमें स्वाभिमान भी पाया जाता है। कर्ण उसका पुत्र है, वह उसकी याचना को ठुकरा देता है तो फिर वह उसकी खुशामद नहीं करती, बल्कि वापस लौट जाती है और कहती है–"चलती हूं पुत्र! नहीं, नहीं, कर्ण! मुझे तुम्हारे आगे याचना करके भी खाली हाथ लौटना पड़ रहा है।"

कुंती का चरित्र एक आदर्श महिला का यथार्थ चरित्र है। वह कोमल ह्रदयानारी और स्नेहमयी माता है। उसका चरित्र सर्वथा मनोवैज्ञानिक और मानवीय है।

प्रश्न - 'सूत-पुत्र' नाटक के आधार पर श्री कृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।

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उत्तर - 'सूत-पुत्र' नाटक में श्री कृष्ण एक प्रभावशाली पात्र हैं। उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं।

श्रेष्ठ वीर –

श्रीकृष्ण श्रेष्ठ वीर हैं। वह अर्जुन के मित्र हैं और युद्ध में अर्जुन के सारथी हैं। कठोर से कठोर परिस्थितियों में भी वे उत्साह दिखाते हैं। सच्चा वीर शत्रु की वीरता की भी प्रशंसा करता है। श्री कृष्ण कर्ण की वीरता और शक्ति की प्रशंसा करते हैं। उन्हें इस बात पर प्रसन्नता होती है कि कर्ण  सर्वप्रकारेण सुरक्षित अर्जुन के रथ को कई कदम पीछे हटा देता है। वे कहते हैं–

"धन्य हो कर्ण! तुम्हारे सामान धनुर्धर संभवतः पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।"

कुशल राजनीतिज्ञ –

कर्ण को सूर्य के द्वारा दिए गए कवच-कुंडलों को दान देने पर प्रसन्न होकर इंद्र ने एक अमोघ-शक्ति दी थी। इस शक्ति को कर्ण अर्जुन के लिए सुरक्षित रखना चाहता था किंतु श्रीकृष्ण कर्ण की उस शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर कराकर उसे असहाय बना देते हैं। यह श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता एवं कुशल राजनीति का ही परिणाम है।

वाक्पटुता – 

श्री कृष्ण कुशल वक्ता के रूप में सामने आते हैं। निहत्थे तथा विवश कर्ण पर अर्जुन बाण नहीं चलाना चाहता तो श्री कृष्ण उसके भावों को भटकाते हैं और इस तरह बातें करते हैं कि अर्जुन को धनुष पर बाण चलाने के लिए विवश होना ही पड़ता है। अर्जुन उत्तेजित होकर कर्ण के शरीर को छलनी बना देता है।

ज्ञानी पुरुष –

श्री कृष्ण महान वीर और राजनीतिज्ञ होने के साथ महान ज्ञानी भी हैं। वे ही अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं। जब-जब अर्जुन युद्ध में विचलित होता है तब-तब श्रीकृष्ण उसे उपदेश देते हैं। वे अर्जुन को समझाते हैं–"मृत्यु को देखकर बड़े-बड़े योद्धा, तपस्वी और ज्ञानी तक व्याकुल हो उठते हैं" तथा "शरीर के साथ आत्मा का बंधन बहुत ही दृढ़ होता है।"

धर्मज्ञ –

श्री कृष्ण धर्म के पूर्ण ज्ञाता हैं। वे धर्म के विरुद्ध आचरण होने पर पश्चाताप करते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन से कर्ण का वध कराते हैं। इस कार्य में उन्हें अन्याय करना पड़ता है। इस अधर्म कार्य पर वे स्वयं पश्चाताप करते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं–"हमने अपनी विजय प्राप्ति के स्वार्थवश कर्ण के साथ जो अन्याय किया है, हम इस प्रकार यश दिलाकर उसे भी थोड़ा हल्का कर सकेंगे।"

सारांश यह है कि श्री कृष्ण इस नाटक में थोड़ी देर के लिए नाटक के अंत में ही सामने आते हैं तथापि इतने ही समय में उनके चरित्र की झलक मिल जाती है।

प्रश्न - 'सूत-पुत्र' नाटक के आधार पर परशुराम का चरित्र चित्रण कीजिए।

उत्तर - 'सूत-पुत्र' नाटक के परशुराम के चरित्र में मुख्यतः निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं–

बाल ब्रह्मचारी –

परशुराम बाल ब्रह्मचारी हैं। ब्रह्मचर्य की अद्भुत शक्ति के कारण ही उन्होंने इतनी लंबी आयु प्राप्त की थी। ब्रह्मचर्य के कारण ही उन्होंने अपनी पैत्रक-विद्या अपने शिष्यों को सिखाई थी।

नैष्ठिक ब्राह्मण –

परशुराम महर्षि जमदग्नि के पुत्र परम नैष्ठिक ब्राह्मण हैं। विद्यादान ब्राह्मण का कर्तव्य है; जो ब्राह्मण विद्या का विक्रय करे, उसे वे नीच मानते हैं। सेवक अथवा वृत्तिभोगी होना वे ब्राह्मण के लिए अनुचित मानते हैं।

सह्रदय दयालु –

परशुराम जी कर्तव्यपालन में जितने कठोर हैं, हृदय से उतने ही कोमल भी हैं। उनका हृदय बज्र से भी अधिक कठोर और फूल से भी अधिक कोमल है। वे कर्तव्य से विवश होकर कर्ण को शाप अवश्य देते हैं किंतु फिर उसकी दशा देखकर उनका ह्रदय द्रवित हो उठता है। उनकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं।

सच्चा पारखी –

परशुराम का अनुभव और सूझ-बूझ इतनी विशाल है कि वे किसी व्यक्ति के स्वभाव ही नहीं, उसके कुल और जाति की सही-सही परख भी कर लेते हैं। कर्ण उनके आश्रम में ब्राह्मण बन कर आया है और सर्वथा ब्राह्मण जैसा आचरण करता है तथापि उसके आचरण से ही परशुराम उसके कुल और जाति की सही-सही परख कर लेते हैं।

कर्तव्य परायण –

कर्तव्यपरायणता परशुराम के चरित्र की महती विशेषता है। अपने कर्तव्य का पालन वे बड़ी तत्परता और कठोरता से करते हैं। कर्ण उनका गुरुभक्त शिष्य है तथापि अपने कर्तव्य का पालन वे कठोरता से करते हैं। कर्ण उनका परम भक्त एवं योग्य शिष्य है तथापि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वे उसे शाप दे देते हैं और उसे आश्रम से निकाल देते हैं।

महान धनुर्धर वीर –


परशुराम अपने समय के श्रेष्ठ धनुर्धर हैं। भीष्म पितामह और कर्ण जैसे महान योद्धाओं ने उनसे धनुर्विद्या सीखी है। उन्होंने यह विद्या अपने पिता से सीखी थी। इस कारण यह उनकी पैतृक संपत्ति थी। पिता से सीखी हुई शस्त्र विद्या में परशुराम ने अपने श्रम से अनेक आयाम विकसित किए थे। वे इतने महान धनुर्धर योद्धा थे कि उन्होंने 21 बार समस्त भारत के क्षत्रियों को पराजित किया था।


निष्कर्ष –


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परशुराम का चरित्र एक आदर्श तपस्वी, धनुर्विद्या के आचार्य, शिष्य प्रेमी, कर्तव्यपरायण हो तेजस्वी ब्राह्मण का चरित्र है। वह बाल ब्रह्मचारी, श्रेष्ठ विद्वान तथा वीर धनुर्धर है। उनमें ब्राह्मणोचित्त गुणों के साथ-साथ क्षत्रियोचित्त गूणों का भी पूर्ण विकास हुआ है।


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