गरुड़ध्वज नाटक का सारांश || Garundhwaj Natak ka Saransh

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गरुड़ध्वज नाटक का सारांश || Garundhwaj Natak ka Saransh

गरुड़ध्वज नाटक का सारांश || Garundhwaj Natak ka Saransh

गरुड़ध्वज नाटक से संबंधित जितने भी प्रश्न बोर्ड परीक्षा में पूछे गए हैं सभी प्रश्नों को यहां पर बहुत ही सरल भाषा में लिखा गया है आपको एक बार पढ़ने मात्र से याद हो जाएंगे। जैसे - सारांश, प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अंक की व्याख्या,स्त्री पात्र का चरित्र-चित्रण,कालिदास का चरित्र-चित्रण इत्यादि प्रश्न।

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प्रश्न - 'गरुड़ध्वज' नाटक के कथानक (कथावस्तु/सारांश) की समीक्षा कीजिए।

अथवा

'गरुड़ध्वज' एक ऐतिहासिक नाटक है। समीक्षा कीजिए।


नाटक का सारांश -


उत्तर - 'गरुड़ध्वज' नाटक की कथा ऐतिहासिक है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में भारत में शकारि विक्रमादित्य का नाम उनके शौर्य और चरित्र के कारण इतिहास में प्रसिद्ध है। इन्हीं विक्रमादित्य के दरबार में महाकवि कालिदास की स्थिति इतिहासकारों ने स्वीकार की है। इनके पूर्व पाटलिपुत्र में शुंगवंश के प्रतापी राजाओं का शासन था। पुष्यमित्र ने शुंग देश की रक्षा के लिए प्रजा की इच्छा से शासन का भार संभाला था। उन्हीं के वंशज सेनापति विक्रममित्र इस समय शासक थे।


विक्रममित्र अपने पूर्वज पुष्यमित्र के महान संकल्प और गौरव की रक्षा कर रहे थे। उन्होंने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से हटाकर मध्यदेश में वेत्रवती नदी के किनारे विदिशा में स्थापित की थी। शुंगवंशी राजा अपने त्याग, वीरता, प्रजा से प्रेम आदि गुणों के कारण इतिहास में प्रसिद्ध हैं। विक्रममित्र इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी हैं।


कुमार विषमशील महाराज महेंद्रादित्य के मित्र थे। कुमार विषमशील ने दक्षिण के शक क्षत्रियों को पराजित कर समस्त भारतवर्ष पर अपनी पताखा फहराई थी। इस महान विजय का एकमात्र कारण था–सेनापति विक्रम मित्र का सहयोग। विक्रममित्र के प्रभाव के कारण ही उत्तर भारत के अनेक वीरनायकों और शासकों ने विषमशील का सहयोग किया था।


उधर उत्तर-पश्चिम में विशाल यवन साम्राज्य था  जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। यवन सम्राट के साथ भी विक्रममित्र की संधि हो गई थी। सेनापति विक्रममित्र ने कुमार विषमशील की इस महती विजय से प्रसन्न होकर अपना सारा राज्य भी उसे दे दिया था और स्वयं शासन तथा राजनीति से अलग होकर अपने महान त्याग का परिचय दिया था। विक्रममित्र ने काशीराज की कन्या वासन्ती से उसका विवाह कराकर काशी के बौद्ध राजाओं का राज्य भी उसके राज्य में सम्मिलित कर दिया था। कुमार विषमशील उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्रपर्यन्त, संपूर्ण भारत के सम्राट हो गए और उन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।


इसी ऐतिहासिक घटना को लेकर 'गरुड़ध्वज' नाटक की रचना हुई है। नाटककार ने कथा को रोचक, आकर्षक तथा प्रभावशाली बनाने के लिए यथास्थान कल्पना का पुट भी दिया है तथापि नाटक में कहीं अविश्वसनीयता, कृतिमता अथवा शिथिलता नहीं आ पायी है।


'गरुड़ध्वज' नाटक के द्वितीय अंक (या प्रथम अंक) का कथानक लिखिए।

अथवा 

'गरुड़ध्वज' नाटक के तीसरे (अंतिम) अंक की कथा का सार अपने शब्दों में लिखिए।


उत्तर - गरुड़ध्वज नाटक के प्रथम द्वितीय एवं तृतीय अंक की व्याख्या इस प्रकार है -


प्रथम अंक की कथा –

'गरुड़ध्वज' नाटक की कथावस्तु ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के भारतीय इतिहास से संबंधित है। इसमें शुंग वंश के अंतिम सेनापति विक्रम मित्र और मालवी के गर्दभिल्ल वंश के जननायक विषमशील के त्याग और शौर्य का चित्रण किया गया है। ये विषमशील ही आगे चलकर शकारि विक्रमादित्य नाम से प्रसिद्ध हुए।

प्रथम अंक की कथा का आरंभ विदिशा नगरी में पुष्कर और नागसेन नामक कुमारों के वार्तालाप से होता है। इस अंक में विदिशा के वैभव तथा आचार्य विक्रममित्र की महत्ता का वर्णन हुआ है। मलयवती मलय देश की राजकुमारी है। वह संगीत, चित्र तथा अन्य ललित कलाओं की शिक्षा पाने के लिए विदिशा के राजकुल में आई हुई है। वासन्ती बौद्ध मतानुयायी काशीराज की कन्या है, जिसको यवनो से उद्धार कर विक्रम मित्र के सैनिक विदिशा में ले आए हैं। मलयवती और वासन्ती दोनों राजकुमारियां परस्पर एक-दूसरे की अभिन्न सखियां बन गई हैं। इन दोनों के सरस संवादों से विक्रम मित्र के शौर्य और शील का पता चलता है और विक्रममित्र के चरित्र की महानता स्पष्ट दिखाई पड़ने लगती है।


विक्रममित्र शुंग वंश के पुष्यमित्र का वंशज है जिसने सम्राट के कर्तव्यहीन हो जाने पर देश की रक्षा हेतु शासन अपने हाथ में ले लिया था। इसीलिए उसके वंशज अपने लिए सम्राट या महाराज शब्द को अग्राह्य समझते हैं। यही कारण है कि विक्रममित्र के लिए 'महाराज' शब्द का प्रयोग करना अपराध समझा जाता है और उसके लिए दंड का विधान होता है।


विक्रममित्र अपराध पर अपने व्यक्तियों को भी कठोर दंड देता है। शुंग वंश के कुमार सेनानी देवभूति का कौमुदी का अपहरण कर लेते हैं, तो विक्रममित्र तत्काल उसे कौमुदी सहित पकड़ लेने की तैयारी करता है। वह अपने सैनिकों को काशी को घेर लेने का आदेश दे देता है। दक्षिण की ओर से कालिदास तथा पश्चिम और उत्तर की ओर से सेनापति वासुदेव को काशी पर आक्रमण करने का आदेश दे देता है।


द्वितीय अंक की कथा –

दूसरे अंक की घटना विदिशा में विक्रममित्र के राज-प्रसाद से आरंभ होती है। तक्षशिला से यवन सम्राट अन्तिलिक का मंत्री हलोदर विदिशा से संधि का संदेश लेकर आता है। मान्धाता सेनापति विक्रममित्र को हलोदर के आने की सूचना देता है और बताता है कि हलोदर अतिथिशाला में आनंद-विभोर होकर नाच-गा रहा है। वह आपके दर्शनों के लिए उत्सुक है।

विक्रममित्र और हलोदर की बातचीत होती है। हलोदर ने भारतीय संस्कृति में एक नए अध्याय का श्रीगणेश किया। उसने कहा कि अन्तिलिक संधि की उन सब शर्तों को मान लेने को तैयार हैं, जिनसे दोनों राज्यों की प्रजा का कल्याण हो। हलोदर विक्रममित्र के चरित्र और पराक्रम की महत्ता को स्वीकार करता है। वह अन्तिलिक (यवन सम्राट) की ओर से संधि की एक ऐसी शर्त प्रस्तुत करता है, जिससे दोनों राज्यों और प्रजाओं का कल्याण हो।


यह अन्तिलिक द्वारा प्रेषित उपहार सिंहासन के सामने रखकर सुवर्ण निर्मित गरुड़ध्वज लेकर कहता है–

"आचार्य! यह गरुड़ स्तंभ सम्राट ने अपने सामने ही तक्षशिला के शिल्पी मणि बाबू से बनवाकर इस सिंहासन के अनुभाग में स्थापित करने के लिए भेजा है। क्या आज्ञा है?"


विक्रममित्र कृतज्ञता पूर्वक स्वीकृति देते हैं। तब हलोदर तक्षशिला के प्रसिद्ध शिल्पी शीलभद्र को उसके चारों शिष्यों सहित उपहार स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। विक्रममित्र स्वीकृति देते हैं। अंत में हलोदर निवेदन करता है कि हमारी इस संधि के फलस्वरूप विदिशा में भी शांति का स्तंभ खड़ा करने का आदेश प्रदान करें। विक्रम मित्र ने उसकी इस शर्त को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।


पद अंतर सैनिक देवभूति तथा कौमुदी को लेकर आ जाते हैं। वासंती इस महान विजय के उपलक्ष्य में कालिदास को माला पहनाती है। उसी समय सेनापति विक्रममित्र आ जाते हैं। कालिदास चरण स्पर्श करते हैं। विक्रममित्र वासंती को काशीराज के आने की सूचना देता है और बताता है कि वे तुम्हें तथा कालिदास, को साथ ले जाना चाहते हैं।


तृतीय अंक की कथा –

'गरुड़ध्वज' नाटक के तीसरे अंक की घटना अवंती में घटित होती है। गर्दभिल्ल वंशी महेंद्रादित्य के पुत्र कुमार विषमशील शकों पर आक्रमण करते हैं। भारत के अनेक वीर, नायक और शासक उनका पूरा सहयोग करते हैं। इन सबके सहयोग से कुमार विषमशील शक क्षत्रियों को पराजित करके अवंती का उद्धार करते हैं।

विषमशील की महती सफलता का एकमात्र कारण सेनापति विक्रममित्र है। उनके प्रभाव के कारण ही भारत के अनेक शासक विषमशील को पूरा सहयोग देते हैं और अभियान में शामिल होते हैं।


विषमशील की विजय के पश्चात जैन आचार्य कालक अपनी गलती अनुभव करते हैं। उन्होंने ही शंको को इस देश पर हमला करने के लिए उत्साहित किया था। कालक के हृदय में देश के निर्माण की भावना जागृत होती है। कुमार विषमशील की उन्नति से विक्रममित्र को प्रसन्नता होती है। वे स्वेच्छा से साकेत, मगध और विदिशा सहित सारे देश की प्रजा के पालन का भार कुमार विषमशील को सौंप देते हैं तथा वे स्वयं शासन से अलग हो जाते हैं।


देवभूति का न्याय कुमार विषमशील को सौंपा जाता है। देवभूति अपने अपराध के लिए स्वयं देश निर्वासन स्वीकार करता है। मलयवती का विवाह विषमशील के साथ हो जाता है। कालिदास की इच्छा से विषमशील का नाम विक्रमादित्य कर रखा है और विक्रम संवत का प्रवर्तन होता है।

       

अंत में कुमार विषमशील तथा सम्राट विक्रमादित्य कामना करते हैं– ''प्रजा के रंजन में राजा शब्द सार्थक रहे, कालिदास यही कहते हैं।" विक्रमादित्य आशीर्वाद देते हैं– ''महाकाल तुम दोनों की यह कामना पूरी करें।" कालिदास कहते हैं– ''भारत की राजनीति का यही महामंत्र हो।'' इसी वाक्य पर नाटक समाप्त हो जाता है। इस प्रकार संपूर्ण नाटक न्याय, राष्ट्र की एकता और संस्कृति का संदेश देता है।


प्रश्न - 'गरुड़ध्वज' नाटक के आधार पर मलयवती (नायिका) के चरित्र पर प्रकाश डालिए।

अथवा

'गरुड़ध्वज' नाटक के प्रमुख स्त्री पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।


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उत्तर - 'गरुड़ध्वज' नाटक की मलयवती प्रमुख स्त्री पात्र है। वह इस नाटक की नायिका है। विषमशील के साथ उसका विवाह होता है। मलयवती के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं–


अद्धितीय सुंदरी –

मलयवती के चरित्र की प्रथम विशेषता उसका प्रभावशाली व्यक्तित्व है। वह मलय देश की राजकुमारी है तथा राजकुमारियों के अनुरूप ही उसका प्रभावशाली व्यक्तित्व और अद्धितीय सौन्दर्य भी है। विदिशा के राजप्रसाद के उपवन में कुमारी मलयवती के सौंदर्य की एक झलक को देखकर कुमार विषमशील उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो जाते हैं–

"किस तरह ……. भूल गए विदिशा के प्रसाद का वह उपवन ……घूम-घामकर मलयकुमारी को आंखों से पी जाना चाहते थे।"

ललित कलाओं से प्रेम –

मलयवती को ललित कलाओं से अत्यधिक प्रेम है। वह मलय देश के संगीत, चित्र तथा अन्य ललित कलाओं को सीखने के लिए ही विदिशा आती है।

विनोदप्रिय –

राजकुमारी मलयवती विनोदी स्वभाव की हंसमुख सुंदरी है। अपनी सखी वासन्ती से वह खुलकर हास-परिहास करती है। जब राजभृत्य बताता है कि महाकवि कह रहे थे कि मलयवती और वासन्ती, दोनों को राजकुमार होना चाहिए था, तो मलयवती राजभृत्य से बड़ा मधुर व्यंग करती है–''क्यों महाकवि को यह क्या सूझी है? इस पृथ्वी की सभी कुमारियां कुमार हो जाए तब तो अच्छा रहे। कह देना महाकवि से इस तरह की उलट-फेर में कुमारों को कुमारियां होना होगा और महाकवि भी कहीं उस चक्र में ना आ जाए।"

वासन्ती के उपहास करने पर महाकवि को कुमारी हो जाना ही ठीक जान पड़ता है, क्योंकि वे ''सेनापति को काव्य सुनाते समय हम लोगों की ओर देखते भी नहीं, जैसे कुमारी हो जाना कोई बड़ी हेठी है।"

उनका वासंती के प्रति वह तीखा और मधुर मार्मिक व्यंग देखिए –


"देखिए जी ध्वजाधारी महोदय! महाकवि से इन वासंती सखी के अभियोग की चर्चा कर दीजिए। सेनापति से आंखें बचाकर कभी इनकी और भी देख लिया करें।"

आदर्श प्रेमिका –

मलयवती एक आदर्श प्रेमिका भी है। उसके हृदय में कुमार विषमशील के प्रति स्नेह अंकुरित होता है। विषमशील को वह मनसे वरण कर लेती है। उसका प्रेम एकनिष्ठ है। अन्य पुरुष की तो वह स्वप्न में भी कल्पना नहीं करती। अंत में उसके प्रेमी विषमशील के साथ ही उसका विवाह हो जाता है। मलयवती को अपने सच्चे प्रेम पर पूर्ण विश्वास है–

"तब मुझे अपने आप में विश्वास है। मैं उन्हें अपनी तपस्या से खोजूंगी ……… निर्विकार शंकर प्राप्त हो गए और वे प्राप्त होंगे।"


संक्षेप में राजकुमारी का चरित्र एक आदर्श राजकुमारी का चरित्र है, जिसमें राजकुमारियों के समान आंतरिक तथा बाह्य गुणों का सुंदर समावेश है।

प्रश्न - 'गरुड़ध्वज' नाटक के आधार पर कालिदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर - 'गरुड़ध्वज' के पुरुष पात्रों में कालिदास भी एक प्रमुख पात्र है। विषमशील जो कि शकारि विक्रमादित्य है, इस नाटक का नायक है और विक्रममित्र शुंगवंशीय शासक एवं वीर सेनापति के रूप में दूसरा प्रमुख पात्र है। तीसरे नंबर पर कालिदास का ही नाम आता है। विषमशील और विक्रममित्र तो प्रबुद्ध शासक, सेनापति और शूरवीर पुरुष है। कालिदास शकारि विक्रमादित्य के दरबारी रत्नों में मुख रत्न माने जाते थे। वे एक विद्वान कवि थे और साथ ही वीर सैनिक भी थे; अतः वे विषमशील तथा विक्रममित्र से भी अधिक गुणों के स्वामी हैं। उनके चरित्र की विशेषताएं हैं।

वीरता –

कालिदास एक वीर पुरुष है। जब देवभूति कौमुदी का अपहरण कर लेता है, तो कालिदास उसे काशी में घेरकर पकड़ लाता है। उसकी इसी वीरता पर मुग्ध होकर काशी की राजकुमारी वासंती उससे प्रेम करने लगती है और काशीराज भी प्रसन्न होकर उन दोनों का विवाह कर देते हैं।

सच्चा मित्र – 

वह विषमशील का मित्र है इसीलिए विषमशील के साथ उसका हास-परिहास चलता रहता है। वह मलयवती के बारे में राजकुमार विषमशील से चुटकी लेता हुआ कहता है–

''किस तरह भूल गए विदिशा के प्रसाद का वह उपवन …… घूमघाम कर मलावती को आंखों से पी जाना चाहते थे।"

सच्चा प्रेमी और कवि –

वह वासंती का सच्चा प्रेमी है। वासंती को भी उस पर पूरा विश्वास है। वह वासंती के बारे में कहता है–

"मैं सब कुछ जानता हूं। उन्होंने तो उस यवन को देखा भी नहीं, फिर उसकी पवित्रता में शंका उत्पन्न करना, तो पार्वती की पवित्रता में शंका उत्पन्न करना होगा।"

इसके अतिरिक्त वे एक महाकवि भी हैं, जैसा कि मलयवती ने कहा भी है –

"क्यों महाकवि को यह क्या सूझी है? इस पृथ्वी की सभी कुमारियां कुमार हो जाए तब तो अच्छा रहे! कह देना महाकवि से–इस तरह भी उलट-फेर में कुमारों को कुमारियां होना होगा और महाकवि भी कहीं उस चक्र में ना आ जाएं।''


निष्कर्ष –

इस प्रकार कालिदास 'गरुड़ध्वज' के अन्य पुरुष पात्रों की अपेक्षा विलक्षण हैं। वे वीर, सच्चे मित्र, सच्चे प्रेमी और महाकवि भी हैं। वे शासक हैं और शासित भी हैं, वे वीर है और न्यायप्रिय भी हैं, वे कठोर हैं और कोमल भी है।

प्रश्न - 'गरुड़ध्वज' नाटक में कुमार विषमशील के चरित्र की विशेषताओं का उद्घाटन कीजिए।

अथवा

'गरुड़ध्वज' नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।


उत्तर - कुमार विषमशील 'गरुड़ध्वज' नाटक का प्रमुख पात्र है। वही इस नाटक का नायक है। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं–

उदार और गुणग्राही –

कुमार विषमशील मालवा के गर्दभिल्लवंशी महाराज महेंद्रादित्य के वीर सुपुत्र हैं। अपने महान कुल के अनुरूप ही उनमें उदारता और गुणग्राहिता विद्यमान है। कवि कालिदास की विद्वता और वीरता आदि गुणों को देखकर वे उनके गुणों पर ऐसे मुग्ध हो जाते हैं कि उनसे अलग होकर रहना भी नहीं चाहते–

"जहां कहीं भी जाओगे, मुझे वही पहुंचना होगा। आचार्य विक्रममित्र की यह विभूति अब इस जीवन में मुझसे क्या छूटेगी? अकृतज्ञ भी कोई कितना हो सकेगा।"


महान वीर –

वीरता कुमार विषमशील के चरित्र की महती विशेषता है। अपनी वीरता के कारण वह शकारि क्षत्रियों को पराजित कर भारी विजय प्राप्त करते हैं। कुमार की वीरता और योग्यता को देखकर ही आचार्य विक्रममित्रों उसे सम्राट बनाकर निश्चिंत हो जाते हैं। आचार्य विक्रममित्र के निंदासूचक शब्द सुनकर उसकी वीरता जाग उठती है और वह उत्तेजित होकर कहता है–''आचार्य आदेश कीजिए, मैं कटुभाषी की जीभ निकाल लूं।"

सच्चा प्रेमी –

कुमार विषमशील एक भावुक व्यक्ति है। उसके हृदय में दया, प्रेम, उत्साह आदि मानवीय भावनाएं पर्याप्त मात्रा में पाई जाती हैं। स्वभाव से धीर होते हुए भी कुमारी मलयवती को देखकर उसके हृदय में प्रेम अंकुरित हो जाता है। नारी सौंदर्य का जादू युवा हृदय को बहुत जल्दी आकर्षित कर लेता है। कालिदास पूर्व घटना का स्मरण करते हुए स्पष्ट कह देते हैं कि वह किस प्रकार मलयवती को देखकर भावुक हो उठते थे –

''किस तरह भूल गए विदिशा के प्रसाद का वह उपवन ……. घूम-घामकर मलयकुमारी को आंखों से पी जाना चाहते थे।"

विवेकशील –

कुमार विषमशील एक विवेकशील व्यक्ति के रूप में चित्रित हुआ है। वह भलि-भांति समझता है कि किस प्रकार, किस अवसर पर अथवा किस स्थान पर किस प्रकार की बात करनी चाहिए। कालिदास के साथ उसका व्यवहार मित्रों जैसा होता है, हास और उपहास भी होता है किंतु सेनापति विक्रम मित्र के सामने वह सर्वत्र संयत और शिष्ट आचरण करता है। किसी काम को करने से पूर्व वह विवेक से काम लेता है, उसके दूरगामी परिणाम को सोचता है और कुपरिणाम से बचने के लिए उचित उपाय भी सोचता है। जब सेनापति विक्रममित्र साकेत और पाटलिपुत्र का राज्य भी उसे सौंपते हैं तो वह बहुत विवेक से काम लेता है। अवंती में रहकर सुदूर पूर्व के इन राज्यों की व्यवस्था करना कोई सरल काम नहीं था। इसलिए वह विक्रममित्र से निवेदन करता है–

''आचार्य! अभी कुछ दिन आप महात्मा काशिराज के साथ उधर की व्यवस्था करें। मैं जानता हूं मेरे सिर पर किसी मनस्वी ब्राह्मण की छाया रहे और फिर मैं यह देख भी नहीं सकता कि जिस क्षेत्र में प्रायः डेढ़ सौ वर्षों से आपके पूर्व-पुरुषों का अनुशासन रहा, वह अकस्मात इस प्रकार मिट जाए।''

कृतज्ञता –

कुमार विषमशील दूसरे के किए हुए उपकार से अपने को उपकृत मानता है। कालिदास के उपकार के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वह कहता है–

''और वह राज्य मुझे देकर मुझ पर, मेरे मन, मेरे प्राण पर राज्य करने की युक्ति निकाल ली। …… मैं सुखी हूं …… तुम्हारा अधिकार मेरे मन पर सदैव बना रहे ….. महाकाल से मेरी यही कामना है।"

निष्कर्ष –

इस विवेचन के आधार पर कुमार विषमशील का चरित्र एक सुयोग्य राजकुमार का चरित्र है। वह स्वभाव से उदार, गुणग्राही तथा भावुक व्यक्ति है। उसमें वीरता, विवेकशीलता आदि कुछ ऐसे गुण हैं जिनके आधार पर उसमें एक श्रेष्ठ शासक बनने की क्षमता सिद्ध हो जाती है।

प्रश्न - 'गरुड़ध्वज' नाटक के आचार्य विक्रममित्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।

अथवा

'गरुड़ध्वज' नाटक में शुंग सेनापति विक्रममित्र के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

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उत्तर - आचार्य विक्रममित्र 'गरुड़ध्वज' नाटक का महत्वपूर्ण पात्र है। नायक विषमशील की सफलता का एकमात्र कारण सेनापति विक्रममित्र ही है। विक्रममित्र के चरित्र में मुख्यता निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं–

नीतिप्रिय –

आचार्य विक्रममित्र अत्यंत नीतिप्रिय शासक हैं। उनके शासन में कहीं भी अनीति नहीं। वह नागसेन पुष्कर से कहते हैं – "तुम जानते हो विक्रममित्र के शासन में अनीति चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, छिपी नहीं रह सकती।"

न्यायप्रियता –

न्यायप्रियता विक्रममित्र के चरित्र की मुख्य विशेषता है। लोगों को उनके न्याय पर पूरा विश्वास है।

कर्तव्यपरायण –

सेनापति विक्रममित्र कर्तव्य को सर्वोपरि मानते हैं। राजा का क्या कर्तव्य है, इस बात को वे भली-भांति समझते हैं। जब कालकाचार्य आचार्य विष्णुगुप्त की राजनीति का दोष बताते हैं तो सेनापति विक्रममित्र उसे राजधर्म बताते हैं।

शरणागतवत्सल –

सेनापति विक्रममित्र शरणागतवत्सल शासक हैं। जो एक बार उनकी शरण में आ जाए, उसकी रक्षा करना वे अपना धर्म समझते हैं। शरणागतवत्सलता में वे अपने पूर्वजों से भी आगे बढ़ गए हैं। मलयवती के विचार से उनके प्रासाद के कण-कण में शरणागत की रक्षा के मंत्र मिले हैं। शरणागत की रक्षा को वे सबसे बड़ा धर्म कहते हैं। उन्हीं के विचारों को महाकवि कालिदास अपने काव्यों में रखते हैं।

धार्मिकता –

विक्रममित्र का चरित्र धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत है। वे नित्य ब्रह्म मुहूर्त में उठकर बेतवा के जल में डूबे रहते हैं, फिर पूरे एक पहर पूजा करते हैं, फिर यज्ञ और अनुष्ठान के बाद गरुड़ध्वज को अपनी आंखों से लगाते हैं। भगवान पर उनका अटूट विश्वास है।

सेवा-भाव –

विक्रममित्र अपनी प्रजा पर शासन नहीं उसकी सेवा करना चाहते हैं। शासक होते हुए भी वे सेवक हैं।

त्याग –

सेनापति विक्रममित्र का त्याग भाव अप्रतिम है। उन्होंने अपने लिए कहीं भी कुछ रक्षित नहीं किया। कालिदास से उन्हें मोह था किंतु काशिराज के मांगने पर वे अपने मोह के इस अंतिम बंधन को भी तोड़ देते हैं।

देश-प्रेम –

विक्रममित्र के चरित्र में देश-प्रेम की भी गहरी भावना पाई जाती है। वे अपने देश की रक्षा के लिए बड़े से बड़े त्याग करने को तैयार रहते हैं। अपने देश के सुख शांति में वे मोक्ष का-सा आनंद अनुभव करते हैं।

वीरता –

सेनापति विक्रममित्र का चरित्र एक महान वीर का चरित्र है। अपनी वीरता के बल पर ही वह समूचे भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधकर शकारि विक्रमादित्य की छत्रछाया में एक महान राष्ट्र की स्थापना करता है। शस्त्र साधना को वह सबसे महत्वपूर्ण विद्या समझता है।

निष्कर्ष –

सेनापति विक्रममित्र का चरित्र एक नीतिरक्षक, न्यायप्रिय, कर्तव्यपरायण, महान देशभक्त, उदार एवं विनम्र, दृढ़ प्रतिज्ञ, निरभिमानी, शरणागतरक्षक, धार्मिक तथा वीर शासक का चरित्र है। उनमें सेवा, त्याग, देश-प्रेम ब्रह्मचर्य आदि अनेक श्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं। वे एक आदर्श पुरुष के रूप में सामने आते हैं। उनका चरित्र स्वाभाविक तथा विश्वसनीय है। वास्तव में विक्रम मित्र का चरित्र भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का स्रोत है एवं सर्वगुण संपन्न शासक है।

Frequently asked questions (FAQ)-


प्रश्न - गरुड़ध्वज नाटक में कौन सा अंक आपको सबसे अच्छा लगा और क्यों?

उत्तर - गरुड़ध्वज नाटक का द्वितीय अंक राष्ट्रहित में धर्म स्थापना के संघर्ष का इसमें विक्रममित्र की दृढ़ता एवं वीरता का परिचय मिलता है। साथ ही उनके कौशल नीतिज्ञ एवं एक अच्छे मनुष्य होने का भी बोध होता है।


प्रश्न - गरुड़ध्वज की विधा क्या है?

उत्तर - नाट्य कला की दृष्टि से पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र की रचना 'गरुड़ध्वज' एक उत्कृष्ट कोटि की रचना है, जिसका तात्विक विवेचन निम्नलिखित है। 'गरुड़ध्वज' नाटक की कथावस्तु ऐतिहासिक है, जिसमें इंसा के एक शताब्दी पूर्व के प्राचीन भारत का सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश चित्रित किया गया है।


प्रश्न - गरुड़ध्वज नाटक के लेखक कौन है?

उत्तर - गरुड़ध्वज नाटक के लेखक श्री लक्ष्मी नारायण मिश्र जी हैं।


प्रश्न - गरुड़ध्वज क्या है?

उत्तर - गरुड़ध्वज भगवान श्री हरि विष्णु का एक नाम है। इसका अर्थ है वो जिसकी ध्वज में गरुड़ का निशान हो।


प्रश्न - गरुड़ध्वज किसका पर्यायवाची शब्द है?

उत्तर - भगवान विष्णु का नाम गरुड़ध्वज है।


यह Blog एक सामान्य जानकारी के लिए है इसका उद्देश्य सामान्य जानकारी प्राप्त कराना है। इसका किसी भी वेबसाइट या Blog से कोई संबंध नहीं है यदि संबंध पाया गया तो यह एक संयोग समझा जाएगा।


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