सत्य की जीत खंडकाव्य का सारांश || Satya ki Jeet Khand Kavya ka Saransh
सत्य की जीत खंडकाव्य से संबंधित जितने भी प्रश्न यूपी बोर्ड में पूछे जाते हैं सभी प्रश्नों के उत्तर यहां पर दिए गए हैं बहुत ही सरल भाषा में आपको एक बार पढ़ने मात्र से यह सब प्रश्न याद हो जाएंगे जैसे कि खंडकाव्य का सारांश, प्रमुख नारी पात्र का चरित्र चित्रण,द्रौपदी की चारित्रिक विशेषता,खंडकाव्य के आधार पर एक मुख्य पुरुष पात्र दुशासन का चरित्र-चित्रण इत्यादि प्रश्न।
सत्य की जीत (खंडकाव्य) -
प्रश्न - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य की कथा का सार (कथानक) या सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य की कथा महाभारत की अत्यंत मार्मिक घटना है। युधिस्टर कौरवों के साथ जुए में अपना सर्वस्व हार चुकने के बाद द्रौपदी को भी हार जाते हैं। दुर्योधन भरी सभा में द्रौपदी को नग्न करके अपमानित करना चाहता है। दु:शासन द्रौपदी को केश पकड़कर खींचते हुए दरबार में लाता है। द्रौपदी इस अपमान से पीड़ित होकर सिंहनाद के समान गरजती हुई तथा दु:शासन को ललकारती है जिसे देखकर सभी सभासद स्तब्ध रह जाते हैं।
द्रौपदी नारी वर्ग पर पुरुष वर्ग के अत्याचार, अन्याय आदि का वर्णन करती है जिसे सुनकर दु:शासन का अहंभाव जाग उठता है। द्रौपदी दु:शासन को नारी की क्रोधाग्नि में न पड़ने के लिए संकेत करती हुई बताती है कि नारी अवसर आने पर कराला काली का भी रूप धारण करके अन्याय तथा राक्षसी प्रवृत्ति का विनाश कर सकती है। बहुत समय तक दोनों में सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय आदि विषयों पर विवाद होता है। द्रौपदी सभा में उपस्थित सभी प्रतापी, नीतिज्ञ एवं शास्त्रज्ञ जनों से पूछती है कि जब युधिष्ठिर पहले स्वयं को जुए में हार चुके थे तो क्या उन्हें मुझे दांव पर लगाने का अधिकार था! द्रौपदी के तर्क से सभी सभासद प्रभावित होते हैं। भीष्म पितामह इसके निर्णय का भार धृतराष्ट्र को सौंप कर मौन हो जाते हैं।
भीष्म पितामह के वचनों को सुनकर द्रौपदी कहती है कि सरल हृदय युधिष्ठिर छल-कपट से पूर्ण चालों से छले गये हैं। दु:शासन कहता है कि हमें धर्म और सत्य की तनिक भी चिंता नहीं है। हम शस्त्रबल पर विश्वास करते हैं न कि शास्त्रबल पर। परंतु कौरव पक्ष का एक सभासद विकर्ण दु:शासन की नीति का विरोध करता है।
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विकर्ण की न्याय संगत बातें सुनकर सभी सभासद शकुनी तथा दु:शासन की निंदा करने लगते हैं। तभी कर्ण पांडवों को वस्त्र उतारने का आदेश देता है। युधिष्ठिर सहित सभी पांडव स्वयं सहर्ष अपने वस्त्र उतार देते हैं। दु:शासन इस दृश्य पर अट्टहास करता हुआ द्रौपदी का चीर खींचने के लिए अपना हाथ बढ़ाता है। द्रौपदी निर्भयतापूर्वक सिंहनाद करते हुए कहती है कि मैं अधर्म से जीती गई हूं इसलिए मैं अपने को विजित नहीं मानती। इसलिए मेरे प्राण भले ही चले जाए परंतु मेरा वस्त्र शरीर से अलग नहीं होगा। दु:शासन मदान्ध होकर अपना हाथ द्रौपदी की और बढ़ाता है। द्रौपदी के भयंकर रूप को देखकर उसका पौरूष क्षीण हो जाता है।
इस दृश्य को देखकर सभी सभासद कौरवों की निंदा करते हैं। द्रौपदी घोषणा करती है कि सत्य, न्याय तथा धर्म के मार्ग पर चलने वाला ही सदा विजयी होता है। सब सभासद कौरवों की निंदा करते हुए द्रौपदी के पक्ष का समर्थन करते हैं। अंत में धृतराष्ट्र सत्य, धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने वाले पांडवों की प्रशंसा करते हुए दुर्योधन को आदेश देते हैं कि पांडवों को मुक्त कर दिया जाए तथा उनका राज्य उन्हें वापस लौटा दिया जाए। धृतराष्ट्र 'जियें हम और जियें सब लोग' की नीति की घोषणा करते हैं। वे द्रौपदी के विचारों का समर्थन करते हुए उसके प्रति किए गए अपमानजनक व्यवहार के लिए क्षमायाचना करते हैं।
प्रश्न - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य के आधार पर प्रमुख नारी पात्र (द्रौपदी) का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा 'सत्य की जीत' खंड काव्य की नायिका द्रौपदी भारतीय संस्कृति की स्वाभिमान-प्रिय नारी की प्रतिनिधि है सिद्ध कीजिए।
अथवा 'सत्य की जीत' खंडकाव्य के आधार पर नायिका द्रौपदी की चारित्रिक विशेषताएं बताइए।
अथवा सिद्ध कीजिए कि ''द्रौपदी सत्य की अपराजेय आत्मिक शक्ति से ओतप्रोत नारी है।''
उत्तर - 'सत्य की जीत' खंड काव्य की नायिका द्रौपदीके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं–
नारी गौरव की प्रतीक –
द्रौपदी नारी जाति का गौरव रूप है। दु:शासन के मुख से नारी के अपमान की बातें सुनकर उसका स्वाभिमान जागृत हो जाता है। वह बताती है कि नारी जाति में ऐसी शक्ति है जो चट्टान को भी हिला देती है। कोमलांगी होते हुए भी वह अवसर पड़ने पर पापियों का संहार करने के लिए भैरवी का रूप धारण कर सकती है। वास्तव में पुरुष नारी की ही देन है।
तर्कपटु –
द्रौपदी तर्कपटु नारी है। वह कौरवों की भरी सभा में अपने को अविजित प्रमाणित करने के लिए अकाट्य तर्क उपस्थित करते हुए कहती है कि जब युधिष्ठिर पहले ही अपने को हार चुके हैं तब उनको मुझे दांव पर लगाने का अधिकार कैसे हो सकता है? द्रोपदी के इस प्रश्न से सभी सभासद किकर्तव्यव्यविमूढ़ हो जाते हैं। सभी शास्त्रज्ञ लज्जावश पराजित से होकर मौन बैठे रह जाते हैं।
स्वाभिमानिनी –
द्रौपदी स्वाभिमान की रक्षा के लिए सदा तत्पर दृष्टिगोचर होती है। वह सदियों से चली आ रही इस धारणा को अस्वीकार कर देती है कि नारी केवल पुरुष के चरणों की दासी है। वह पुरुष के समान नारी के अधिकारों तथा शक्तिमत्ता की प्रतिष्ठा के अनुरूप स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने वाली किसी भी बात को स्वीकार नहीं करती है।
आत्मसम्मान की रक्षिका –
द्रौपदी अपने सम्मान की रक्षा के लिए सब कुछ त्यागने के लिए तैयार है। जब दु:शासन उसका चीर हरण करने के लिए अपना हाथ बढ़ाता है तो वह उसकी शक्ति को चुनौती देती हुई कहती है कि नारी अपने सम्मान की रक्षा के लिए कराला चण्डी का रूप धारण कर लेती है। दु:शासन को वस्त्र खींचने के लिए बढ़ता देख वह साक्षात दुर्गा का रूप धारण कर लेती है जिसे देखकर दु:शासन का शरीर भयवश कांपने लगता है।
सत्य तथा न्याय-मार्ग की अनुगामिनी –
द्रौपदी सत्य तथा न्याय के मार्ग का दृढ़ता के साथ अनुगमन करती है। वह सत्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों का भी मोह नहीं करती है। सत्य बल का आश्रय लेकर ही वह दु:शासन की शक्ति को चुनौती देती है। वह सभी धर्मज्ञ सभासदों के समक्ष अपने अविजित होने का प्रश्न उपस्थित करके न्याय की प्रार्थना करती है।
वह सत्य को ईश्वर तथा भगवान मानती है। इतना ही नहीं, वह सत्य के अनंत रूपों का आश्रय लेकर अपने को सर्वशक्ति संपन्न नारी समझती है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि द्रौपदी के चरित्र में सत्य, न्याय, धर्म, विवेक, समता आदि ऐसे उदात्त गुणों का समावेश है जिनसे वह भारतीय नारी की सजीव प्रतिमा प्रतीत होती है।
प्रश्न - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य के आधार पर एक मुख्य पुरुष पात्र दुशासन का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य में दु:शासन प्रमुख पुरुष पात्र है जो महाभारत के दु:शासन की प्रतिमूर्ति है। दु:शासन के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं–
अहंकारी –
सर्वप्रथम दु:शासन अहंकारी पुरुष के रूप में उपस्थित होता है। वह अहंकार के मद में अंधा होकर नैतिकता को भूल जाता है। पशुबल विश्वासी दु:शासन पुरुष के सामने नारी को तुच्छ समझता है।
धर्म तथा सत्य का विरोधी –
धर्म तथा सत्य का शत्रु दु:शासन आध्यात्मिक शक्ति का विरोधी एवं भौतिक शक्ति का पुजारी है। वह सत्य, धर्म, अन्याय, अहिंसा जैसे उदार आदर्शों की उपेक्षा करता है। वह 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' के सिद्धांत का अनुयायी है। शस्त्रबल का पुजारी दु:शासन शस्त्रबल को ही एकमात्र बल मानता है। वह कहता है कि इसी बल पर सृष्टि का कार्यकलाप चलता है।
सतीत्व से पराजय –
दु:शासन की चीरहरण में असमर्थता इस तथ्य की पुष्टि करती है कि अंत में सत्य की ही जीत होती है। दु:शासन द्रौपदी में साक्षात दुर्गा को देखकर स्वयं को चीर हरण जैसे जघन्य कार्य को करने में अपने को सर्वथा असमर्थ पाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दु:शासन का चरित्र भौतिकता के मद में चूर साम्राज्यवादी शासकों के चरित्र का चित्र है।
प्रश्न - 'सत्य की जीत' के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा विरचित 'सत्य की जीत' खंडकाव्य में युधिष्ठिर का चरित्र कोई विशेष महत्वपूर्ण नहीं दिखाया गया है। वह एक गौण पुरुष पात्र है, किंतु साथ ही इस काव्य की घटना का आधारस्तंभ भी यही है–
तुच्छ जुआरी –
युधिष्ठिर जुआ खेलने वाला एक निम्न कोटि का व्यक्ति है। यद्यपि वह राजा, ज्येष्ठ पांडव और धर्मपुत्र है किंतु वह जुए में अपने राज्य, अपने भाइयों, अपने आपको और अपनी पत्नी द्रौपदी को भी हार जाता है जो एक अत्यंत तुच्छ बात है।
धर्मभीरु एवं निष्कपट –
युधिष्ठिर धर्मपुत्र होने के नाते धर्म पर चलने वाला है किंतु साथ ही वह धर्मांध और निष्कपट भी है। वह दुर्योधन और शकुनि के छल-कपट में फंस कर जुए में सब कुछ हारता चला जाता है और इतना धर्मांध और विचारहीन हो जाता है कि स्वयं को हार जाने पर भी अनाधिकार रूप से द्रौपदी को भी हार जाता है।
अहिंसावादी एवं कायर –
युधिष्ठिर अहिंसावादी होने के साथ ही साथ कायर भी है। द्रौपदी द्वारा सचेत किए जाने पर भी कि उसके स्वयं हार जाने पर वह द्रौपदी को जुए में हारने का अधिकारी नहीं रखता, यह सरासर अन्याय, अधर्म एवं असत्य है, वह निष्क्रिय बैठा रहता है और अपनी पत्नी की बेइज्जती देखता रहता है।
निष्कर्ष –
इस प्रकार युधिष्ठिर का चरित्र किसी भी प्रकार से प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। वह नारी के सम्मान की रक्षा में असमर्थ है। वह इतना अहिंसावादी एवं धर्मभीरु है कि वह अपने राज्य, आत्मसम्मान और नारी के सम्मान को भी तिलांजलि दे बैठता है।
प्रश्न - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य के आधार पर दुर्योधन का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर - 'सत्य की जीत' खंडकाव्य में दुर्योधन का चरित्र एक तुच्छ एवं नीच शासक का चरित्र है। वह असत्य, अन्याय तथा अनैतिकता का आचरण करता है। वह छल विद्या में निपुण अपने मामा शकुनि की सहायता से पांडवों को द्यूतक्रीडा़ के लिए आमंत्रित करता है और युधिष्ठिर को जुंआ खिलाकर छल से द्रौपदी सहित उनका सारा राज्य जीत लेता है। दुर्योधन चाहता है कि पांडव द्रौपदी सहित उसके दास-दासी बनकर रहें। वह द्रौपदी को सभा के बीच में वस्त्रहीन करके अपमानित करना चाहता है।
शस्त्रबल का पुजारी –
दुर्योधन सत्य, धर्म और न्याय में विश्वास नहीं रखता। वह शारीरिक तथा तलवार के बल में आस्था रखता है। आध्यात्मिक और आत्मिक बल की वह उपेक्षा करता है। दु:शासन के मुख से शस्त्रबल की प्रशंसा और शास्त्रबल की निंदा सुनकर वह प्रसन्नता से खिल उठता है।
अनैतिकता का अनुयायी –
दुर्योधन न्याय और नीति को छोड़कर अनीति का अनुसरण करता है। भले-बुरे का विवेक वह बिल्कुल नहीं करता। अपने अनुयायियों को भी अनीति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना ही उसकी नीति है। जब दु:शासन द्रौपदी का चीरहरण करने में असमर्थ हो जाता है तो दु:शासन की इस असमर्थता को वह सहन नहीं कर पाता है और अभिमान में गरज कर कहता है–
"कर रहा क्या यह व्यर्थ प्रलाप, भय वश था दु:शासन वीर।
कहा दुर्योधन ने उठ गरज, खींच, क्या नहीं खिंचेगी चीर।।"
दुर्योधन की चारित्रिक कमियों के रहस्य को द्रौपदी प्रकट करती है। वह बाह्य रूप में पांडवों को अपना भाई बताता है किंतु आंतरिक रूप से उनकी जड़ें काटता है। वह पांडवों का सर्वस्व हरण करके उन्हें अपमानित और दर-दर का भिखारी बनाना चाहता है।
असहिष्णुता –
दुर्योधन स्वभाव से बड़ा ईष्यालु है। दूसरों का बढ़ता हुआ यश और वैभव वह सहन नहीं कर पाता है। पांडवों का बढ़ता हुआ यश तथा सुख-शांतिपूर्ण जीवन दुर्योधन की ईर्ष्या का कारण बन जाता है। वह रात दिन पांडवों के विनाश की ही योजना बनाता रहता है। उसके इस ईर्ष्यालु स्वभाव का चित्रण द्रौपदी के इन शब्दों में देखिए–
"ईर्ष्या तुम को हुई अवश्य, देख जग में उनका सम्मान।
विश्व को दिखलाना चाहते रहे तुम अपनी शक्ति महान।।"
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि दुर्योधन का चरित्र एक साम्राज्यवादी शासक का चरित्र है।
प्रश्न - 'सत्य की जीत' की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए।
अथवा 'सत्य की जीत' खंडकाव्य के संवाद कौशल का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर - इस काव्य की कथा महाभारत से ली गई है। द्रौपदी चीरहरण की यह घटना अत्यंत मार्मिक तथा महत्वपूर्ण है। युधिष्ठिर जुए में सब कुछ हार जाते हैं, यहां तक कि वे द्रौपदी को भी दांव पर लगा देते हैं। दुर्योधन की आज्ञा से दु:शासन द्रौपदी को बाल पकड़कर राजसभा में लाता है, दुर्योधन द्रौपदी का चीरहरण कर उसे नग्न करने का आदेश दे देता है।
सभा में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे सभी धर्मज्ञ और शास्त्रज्ञ बैठे थे।
सब मौन इस अत्याचार को देखते रहते हैं। द्रौपदी कहती है कि वह अविजित है क्योंकि द्रौपदी से पहले जब वे स्वयं अपने को हार गए थे तो उन्हें यह अधिकार ही नहीं रह जाता कि वे द्रौपदी को दांव पर लगाएं। वह इस महान अत्याचार से बचाने के लिए उपस्थित वीरों से निवेदन करती है परंतु किसी को साहस नहीं होता कि इस अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध कुछ बोल सके। सभा के सन्नाटे को भंग करता है विकर्ण। वह द्रौपदी के पक्ष का समर्थन करता हुआ कहता है कि द्रौपदी ने जो तर्क उपस्थित किया है उसका धर्म और न्याय के अनुसार निर्णय होना चाहिए। किंतु मदांध दु:शासन द्रौपदी का चीर हरण करने के लिए आगे बढ़ता है। द्रौपदी साक्षात कराला काली का रूप धारण कर सिंहनाद करती है।
उसके इस भयंकर रूप को देखकर दु:शासन ऐसा भयभीत हो जाता है कि उसे चीरहरण करने का साहस ही नहीं होता। इस दृश्य को देखकर सभी सभा सदस्य कौरवों की निंदा करते हुए द्रौपदी के पक्ष का समर्थन करते हैं। अंत में धृतराष्ट्र पांडवों को मुक्त करने एवं उनका राज्य लौटाने का आदेश देते हुए उनके गौरवपूर्ण भविष्य की कामना करते हैं। इस प्रकार इस काव्य की कथावस्तु संक्षिप्त, सरस तथा रोचक है।
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1. सत्य की जीत क्या है?
उत्तर - सत्य की जीत खंड का में कवि ने द्रोपदी के चीर हरण की घटना में श्री कृष्ण द्वारा चीर बढ़ाए जाने की अलौकिकता को प्रस्तुत नहीं किया है। द्रौपदी का पक्ष सत्य न्याय का पक्ष है। तात्पर्य है कि जिसके पास सत्य और न्याय का बल हो असत्य रूपी दुशासन उसका चीरहरण नहीं कर सकता।
2. सत्य की जीत के लेखक कौन हैं?
उत्तर - सत्य की जीत खंडकाव्य के लेखक श्री द्वारिका प्रसाद महेश्वरी जी हैं।
3. सत्य की हमेशा विजय का अर्थ क्या है?
उत्तर - सत्य की हमेशा विजय का अर्थ है कि झूठ की तुलना में सत्य एक बहुत बड़ा गुण है। जो व्यक्ति इस गुण को अपनाता है उसके साथ भगवान हमेशा रहते हैं। सच बोलने से हमें किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होता है। भगवान स्वयं ही हमारी रक्षा करते हैं क्योंकि हम सत्य की तरह है इतिहास में अनेकों हमें ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो सत्य और झूठ पर बने हुए हैं और अंत में सत्य की ही जीत होती है। हमेशा याद रखिए सत्य परेशान हो सकता है लेकिन कभी हार नहीं सकता।
4. सत्य एक महत्वपूर्ण गुण क्यों है?
उत्तर - इसमें कोई विवाद नहीं है कि ईमानदारी एक गुण हैं यह चरित्र की विशेषता है। यह विश्वास को भी बढ़ावा देता है, स्वस्थ संबंधों को बढ़ावा देता है, संगठनों और समाजों को मजबूत करता है और नुकसान को रोकता है।
5. लेखक के अनुसार सत्य का स्वरूप कैसे होता है?
उत्तर - लेखक के अनुसार सत्य का स्वरूप अनोखा होता है। सत्य बहुत भोला भाला और सीधा साधा होता है। सत्य हमेशा सत्य होता है और सत्य को कोई भी नहीं बदल सकता।
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