कबीरदास का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, भाषा शैली एवं रचनाएं || Kabir Das ka Jivan Parichay
संत कबीरदास
(जीवनकाल : सन् 1398 - 1518 ई०)
संत कबीरदास का जीवन परिचय यहां पर सबसे सरल भाषा में लिखा गया है। यह जीवन परिचय कक्षा 9वीं से लेकर कक्षा 12वीं तक के छात्र के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें संत कबीरदास के सभी पहलुओं के विषय में चर्चा की गई है, तो इसे कोई भी व्यक्ति भी पढ़ सकता है।
जीवन परिचय –
कबीरदास जी का जन्म संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) में एक जुलाहा परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम नीरू एवं माता का नाम नीमा था।
कवि परिचय : एक दृष्टि में
कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने लोक-लाज के भय से जन्म देते ही इन्हें त्याग दिया था। नीरू एवं नीमा को ये कहीं पड़े हुए मिले और उन्होंने इनका पालन-पोषण किया। कबीर के गुरु प्रसिद्ध संत स्वामी रामानंद थे।
जनश्रुतियों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि कबीर विवाहित थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनकी दो संतानें थीं – एक पुत्र और एक पुत्री। पुत्र का नाम कमाल था और पुत्री का नाम कमाली। यहां यह स्मरणीय है कि अनेक विद्वान कबीर के विवाहित होने का तथ्य स्वीकार नहीं करते। इन विद्वानों के अनुसार 'कमाल' नामक एक अन्य कवि हुए थे, जिन्होंने कबीर के अनेक दोहों का खंडन किया था। वे कबीर के पुत्र नहीं थे।
अधिकांश विद्वानों के अनुसार कबीर 1575 वि०(सन् 1518 ई०) में स्वर्गवासी हो गए। कुछ विद्वानों का मत है कि इन्होंने स्वेच्छा से मगहर में जाकर अपने प्राण त्यागे थे। इस प्रकार अपनी मृत्यु के समय में भी उन्होंने जनमानस में व्याप्त उस अंधविश्वास को आधारविहीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया, जिसके आधार पर यह माना जाता है कि काशी में मरने पर स्वर्ग प्राप्त होता है और मगहर में मरने पर नरक।
साहित्यिक परिचय –
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इन्होंने स्वयं ही कहा है –
मसि कागद छूयो नहीं,कलम गह्मो नहीं हाथ।
अतः यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि उन्होंने स्वयं अपनी रचनाओं को लिपिबद्ध नहीं किया। इसके पश्चात भी उनकी वाणियों के संग्रह के रूप में रचित कई ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। संत कवियों में कबीर सर्वाधिक प्रतिभाशाली कवि थे। इन्होंने मन की अनुभूतियों को स्वाभाविक रूप से अपने दोहों में व्यक्त किया।
कबीर भावना की प्रबल अनुभूति से युक्त उत्कृष्ट रहस्यवादी, समाज-सुधारक, पाखंड के आलोचक, मानवतावादी और समानतावादी कवि थे। इनके काव्य में दो प्रवृतियां मिलती हैं – एक में गुरु एवं प्रभुभक्ति, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, क्षमा, संतोष आदि विषयों पर रचनात्मक अभिव्यक्ति तथा दूसरी में धर्म, पाखंड, सामाजिक कुरीतियों आदि के विरुद्ध आलोचनात्मक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। इन दोनों प्रकार के काव्यों में कबीर की अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।
कृतियां – कबीर की वाणियों का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके तीन भाग हैं–
साखी – कबीर की शिक्षा और उनके सिद्धांतों का निरूपण अधिकांशतः 'साखी' में हुआ है। इसमें दोहा छंद का प्रयोग हुआ है।
सबद – इसमें कबीर के गेय-पद संग्रहीत हैं। गेय-पद होने के कारण इनमें संगीतात्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान है। इन पदों में कबीर के अलौकिक प्रेम और उनकी साधना-पद्धति की अभिव्यक्ति हुई है।
रमैनी – इसमें कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचार व्यक्त हुए हैं। इसकी रचना चौपाई छंद में हुई है।
काव्यगत विशेषताएं –
(अ) भावपक्ष
कबीरदास निर्गुण एवं निराकार ईश्वर के उपासक थे। इनका ईश्वर निराकार ब्रह्म है। ज्ञानमार्गी शाखा के कवि होने के कारण इन्होंने ज्ञान का उपदेश देकर जन सामान्य को जागृत किया। कबीर ने ज्ञान और नाम स्मरण को प्रमुखता देते हुए प्रभु-भक्ति का संदेश दिया है।
कबीर महान् समाज-सुधारक थे। इनके समकालीन समाज में अनेक अंधविश्वासों, आडंबरों, कुरीतियों एवं विविध धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सबका विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूर्ण प्रयास किया। इन्होंने जाति-पांति के भेदभाव को दूर करते हुए शोषित जनों के उद्धार का प्रयत्न किया तथा हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया।
जाति-पांति पूछै नहिं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।
कबीर का काव्य ज्ञान और भक्ति से ओत-प्रोत है, इसलिए इनके काव्य में शांत रस की प्रधानता है। आत्मा और परमात्मा के विरह अथवा मिलन के चित्रण में श्रृंगार के दोनों पक्ष (वियोग तथा संयोग) उपलब्ध हैं, किंतु कबीर द्वारा प्रयुक्त श्रृंगार रस, शांत रस का सहयोगी बनकर ही उपस्थित हुआ है।
कबीर-काव्य की सबसे बड़ी विशेषता समन्वय की साधना में है। कबीर ने हिंदू-मुस्लिम समन्वय पर बल दिया। इन दोनों वर्गों के आडंबरों का विरोध करते हुए इन्होंने दोनों को मिलकर रहने का उपदेश दिया।
कबीर ने गुरु को सर्वोपरि माना। इनके अनुसार सद्गुरु के महान् उपदेश ही भक्त को परमात्मा के द्वार तक पहुंचा सकते हैं। इसलिए इन्होंने गुरु को परमात्मा से बढ़कर माना है। यथा –
बलिहारी गुर आपणैं, द्योहाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
(ख) कलापक्ष
भाषा – कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इन्होंने तो संतो के सत्संग से ही सब-कुछ सीखा था। इसीलिए इनकी भाषा साहित्यिक नहीं हो सकी। इन्होंने व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली सीधी-सादी भाषा में ही अपने उपदेश दिए। इनकी भाषा में अनेक भाषाओं; यथा – अरबी, फारसी, भोजपुरी, पंजाबी, बुंदेलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं। इसी कारण इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। भाषा पर कबीर का पूरा अधिकार था। इन्होंने आवश्यकता के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया। कबीर ने अलंकारों का स्वभाविक प्रयोग किया है, उन्होंने अलंकारों को कहीं भी थोपा नहीं है। कबीर के काव्य में रूपक, उपमा, अनुप्रास, दृष्टांत, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों के प्रयोग अधिक हुए हैं। कबीर को दोहा और पद अधिक प्रिय रहे। उन्होंने साखियों में दोहा तथा सबद व रमैनी में गेय पदों का प्रयोग किया है।
शैली – भाषा की भांति कबीर की शैली भी अनिश्चित एवं विविध रूपात्मक है। इनका समस्त काव्य मुक्तक है और गेय शैली में है। भाव के अनुसार इनकी शैली भी बदलती जाती है। स्थूल रूप में कबीर की शैली के 3 रूप माने जा सकते हैं–
खण्डनात्मक शैली – कबीर ने धर्म के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों एवं परंपराओं का डटकर विरोध किया है। ऐसे स्थलों पर इनके कथन में बुद्धिवाद एवं अक्खड़पन दिखाई देता है। ये कथन मर्म पर सीधी और करारी चोट करते हैं। तीखा व्यंग इनकी शैली का प्रमुख गुण है। ऐसे अवसरों पर प्रयुक्त शैली को खण्डनात्मक शैली कहा जाता है।
उपदेशात्मक शैली – उपदेश देते समय कबीर अपनी बात को अत्यंत सरल ढंग से कहते हैं, जिससे श्रोता इनके कथन को भली-भांति समझ सके। देश-काल के अनुसार इस शैली की शब्दावली बदलती रहती है, परंतु शब्दावली सदैव परिचित ही रहती है। हिंदुओं को उपदेश देते समय वे शुद्ध हिंदी का तथा हिंदुओं में प्रचलित प्रतीकों का प्रयोग करते हैं। मुसलमानों को उपदेश देते समय वे फारसी, अरबी शब्दों का तथा इस्लामी प्रतीकों का प्रयोग करते हुए दिखाई देते हैं।
अनुभूतिव्यंजक शैली – यह शैली कबीर के साहित्यिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है। पदों में गीतिकाव्य के समस्त लक्षण – मार्मिकता, अनुभूति की गहराई, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता आदि दिखाई देते हैं। पदों की भाषा अपेक्षाकृत प्रकट और सुघट है। उसमें माधुर्य गुण भरा है। इस शैली में संत की कोमलता, व्यंजना की प्रौढ़ता, साधक की कातरता, स्वानुभूति का सफल अंकन तथा अलंकारों एवं प्रतीकों का मार्मिक प्रयोग है जो इनके काव्य को अलौकिक बना देता है।
हिंदी-साहित्य में स्थान –
वास्तव में कबीर महान् विचारक, श्रेष्ठ समाज-सुधारक, परम योगी और ब्रह्म के सच्चे साधक थे। इनकी स्पष्टवादिता, कठोरता, अक्खड़ता यद्यपि कभी-कभी नीरसता की सीमा तक पहुंच जाती थी, परंतु इनके उपदेश आज भी सद्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले हैं। इनके द्वारा प्रवाहित की गई ज्ञानगंगा आज भी सबको पावन करने वाली है। कबीर में एक सफल कवि के सभी लक्षण विद्यमान थे। ये हिंदी-साहित्य की श्रेष्ठतम विभूति थे। इन्हें भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी व संत काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।
कबीर दास की शिक्षा एवं गुरु -
कबीर दास जी ने ज्ञानी कैसे थे? आखिर इन्होंने यह ज्ञान कहां से प्राप्त किया था उनके गुरु को लेकर भी बहुत सारी बातें हैं। कुछ लोग मानते हैं कि इनके गुरु रामानंद जगत गुरु रामानंद जी थे। इस बात की पुष्टि संत कबीर दास के दोहे से मिलती है।
"काशी में हम प्रगट भए, रामानंद चेताएं"
यह बात उन्होंने ही कही है। उन्हें जो ज्ञान मिला था। उन्होंने जो राम भक्ति की थी। वह रामानंद जी की देन थी राम शब्द का ज्ञान उन्हें रामानंद जी ने ही दिया था। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है। रामानंद जी उस समय एक बहुत बड़े गुरु हुआ करते थे। रामानंद जी ने कबीर दास को अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था। यह बात कबीर दास जी को जमी नहीं उन्होंने ठान लिया कि वह अपना गुरु जगत गुरु रामानंद को ही बनाएंगे।
कबीर दास जी को ज्ञात हुआ कि रामानंद जी रोज सुबह पंचगंगा घाट पर स्नान के लिए जाते हैं इसलिए कबीर दास जी घाट की सीढ़ियों पर लेट गए जब वहां रामानंद जी आए तो रामानंद जी का पैर कबीर दास के शरीर पर पड़ गया तभी रामानंद जी के मुख से राम राम सब निकल आया। जब कबीर दास जी ने रामानंद के मुख से राम राम शब्द सुना तो कबीर दास जी ने उसे ही अपना दीक्षा मंत्र मान लिया। साथ ही गुरु के रूप में रामानंद जी को स्वीकार कर लिया। अधिकतर लोग रामानंद जी को ही कबीर का गुरु मानते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि कबीर दास जी के कोई गुरु नहीं थे इन्हें जितना भी ज्ञान प्राप्त हुआ है उन्होंने अपने ही बदौलत प्राप्त किया है। कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे इस बात की पुष्टि के लिए भी एक दोहा मिलता है।
"कागज छुआ नहीं, कलम गई नहीं हाथ"
कबीर दास जी के प्रमुख शिष्य -
कबीर के प्रिय शिष्य धर्मदास थे। कबीर अशिक्षित थे लेकिन वह ज्ञान और अनुभव से समृद्ध थे। सद्गुरु रामानंद जी की कृपा से कबीर को आत्म ज्ञान तथा प्रभु भक्ति का ज्ञान प्राप्त हुआ बचपन से ही कबीर एकांत प्रिय बा चिंतनशील स्वभाव के थे।
उन्होंने जो कुछ भी सीखा। वह अनुभव की पाठशाला से ही सीखा। वह हिंदू और मुसलमान दोनों को एक ही पिता की संतान स्वीकार करते थे। कबीर दास जी ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा। लेकिन अपने शिष्यों से लिखवाया था। इनके अनुयाइयों व शिष्यों ने मिलकर एक पंथ की स्थापना की। जिसे कबीर पंथ कहा जाता है कबीर दास जी ने स्वयं किसी पंथ की स्थापना नहीं की वह इससे परे थे। वह कबीरपंथी सभी समुदाय और धर्म से आते हैं। जिसमें हिंदू, इस्लाम, बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं।
कबीरदास जी का दर्शन शास्त्र -
कबीर दास जी का मानना था कि धरती पर अलग-अलग धर्मों में बंटवारा करना यह सब मिथ है। गलत है। यह एक ऐसे संत थे जिन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। इन्होंने एक सार्वभौमिक रास्ता बताया। उन्होंने कहा कि ऐसा रास्ता अपनाओ जिसे सभी अनुसरण कर सके जीवात्मा और परमात्मा का जो आध्यात्मिक सिद्धांत है। उस सिद्धांत को दिया। यानी मोक्ष क्या है उन्होंने कहा कि धरती पर जो भी जीवात्मा और साक्षात जो ईश्वर है जब इन दोनों का मिलन होता है यही मोक्ष है अर्थात जीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही मोक्ष है।
कबीर दास जी का विश्वास था कि ईश्वर एक है वह एक ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। इन्होंने हिंदू धर्म में मूर्ति की पूजा को नकारा उन्होंने कहा कि पत्थर को पूजने से कुछ नहीं होगा।
"कबीर पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीस खाए संसार।"
कबीर दास जी ने ईश्वर को एक कहते हुए अपने अंदर झांकने को कहा। भक्ति और सूफी आंदोलन के जो विचार थे। उनको बढ़ावा दिया मोक्ष को प्राप्त करने के जो कर्मकांड और तपस्वी तरीके थे। उनकी आलोचना की इन्होंने ईश्वर को प्राप्त करने का तरीका बताया कि दया भावना हर एक के अंदर होनी चाहिए। जब तक यह भावना इंसान के अंदर नहीं होती तब तक वह ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर सकता। कबीर दास जी ने अहिंसा का पाठ लोगों को पढ़ाया।
भावपक्षीय विशेषताएं -
• सत्य भावना
• दृढ़ आत्मविश्वास
• सरलता तथा सहदयता
• निर्गुण ब्रह्म के उपासक
• रहस्यवाद
• गुरु महिमा
• गंभीर अनुभूति
संत कबीर दास जी के कुछ प्रसिद्ध दोहे -
• माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा आएगा मैं रोदूंगी तोय।
अर्थ - कुमार जब बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को रौंद रहा था तो मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे रौंद रहा है। एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिट्टी में विलीन हो जाएगा और मैं तुझे रौंदूगी।
• दु:ख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोई। जो सुख में सुमिरन करे तो दु:ख काहे को होय।
अर्थ - मनुष्य ईश्वर को दुख में याद करता है स्टॉक में कोई नहीं याद करता यदि सुख में परमात्मा को याद किया जाए तो दुख ही क्यों हो।
• बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
अर्थ - खजूर के पेड़ के समान बड़े होने से क्या लाभ जो ना ठीक से किसी को छाया दे पाता है और ना ही उसके फल आसानी से उपलब्ध हो पाते हैं। इनके अनुसार ऐसे बड़े होने का क्या फायदा जब वह किसी की सहायता ना करता हो या फिर उसके अंदर इंसानियत ना हो।
• माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर। आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर।
अर्थ - कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर मन माया सब नष्ट हो जाता है परंतु मन में उठने वाली आशा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती। इसलिए संसार की मोह, तृष्णा आदि में नहीं फंसना चाहिए।
• बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ - जब मैं संसार में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई भी बुरा नहीं मिला, लेकिन जब मैंने अपने मन में देखने का प्रयास किया तो मुझे यह ज्ञात हुआ कि दुनिया में मुझसे बुरा कोई नहीं है।
• जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि। सब अंधियारा मिट गया दीपक देख्या माही ।
अर्थ - जब मैं अपने अहंकार में डूबा था, तब अपने इष्ट देव को नहीं देख पाता था, लेकिन जब गुरु ने मेरे अंदर ज्ञान का दीपक प्रकाशित किया तब अंधकार रूपी अज्ञान मिट गया और ज्ञान के आलोक में ईश्वर को पाया।
• काल करे सो आज कर आज करे सो अब। पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
अर्थ - हमारे पास समय बहुत कम है। जो काम कल करना है, उसे आज करो और जो आज करना है, उसे अभी करो पल भर में प्रलय आ जाएगी फिर अपने काम कब करोगे? ।
• ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।।
अर्थ - अपने मन में अहंकार को त्याग कर ऐसे कोमल और मीठे शब्द बोलना चाहिए। जिससे सुनने वाले के मन को अच्छा लगे ऐसी भाषा दूसरों को सुख हो जाती है। साथ ही स्वयं को भी सुख देने वाली होती है।
• गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए।।
अर्थ - हमारे सामने गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े हैं, तो आप किसके चरण स्पर्श करेंगे गुरु ने अपने ज्ञान के द्वारा हमें ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है, इसलिए गुरु की महिमा ईश्वर से भी ऊपर है अतः हमें गुरु का चरण स्पर्श करना चाहिए।
महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर -
1. कबीर के गुरु का नाम क्या था?
उत्तर - संत रामानंद जी
2. कबीर दास जी का जन्म कब और कहां हुआ था?
उत्तर - 1398 ई. में उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में हुआ था।
3. कबीर दास का पालन पोषण किसने किया था?
उत्तर - कबीर दास का पालन पोषण उनके माता-पिता नीमा और नीरू ने किया था।
4. कबीर दास जी के अनमोल विचार?
उत्तर - कबीर दास जी के अनुसार ईश्वर निराकार ईश्वर का कोई आकार नहीं। ईश्वर को इधर-उधर बाहर ढूंढने से प्राप्त नहीं होने वाला वह हमारे अंदर ही निहित है। सच्चा ज्ञान मिलने पर ही ईश्वर की प्राप्ति होगी। गुरु ही सच्चे ज्ञान को हासिल करने का मार्ग दिखा सकते हैं। वह ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं।
बड़े-बड़े ग्रंथों को पढ़ने से ज्ञान नहीं मिलता बल्कि ज्ञान अपने अंदर के अंधकार को मिटाने और जीवन के व्यवहारिक अनुभव से मिलता है। लहरों के डर से किनारे पर बैठे रहने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन रूपी समुद्र में छलांग मारकर लक्ष्य मोती हासिल करने पड़ते हैं, कोई कितना भी खराब व्यवहार करें हमें उसके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
5. कबीर दास का मूल नाम क्या है?
उत्तर - संत कबीर दास
6. संत कबीर का वास्तविक नाम क्या था?
उत्तर - कबीर दास जी एक राष्ट्रवादी कवि और संगीतकार थे। हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण संतो में से एक थे और मुसलमानों द्वारा सूफी भी माने जाते थे हिंदू मुस्लिम और सिख उनका सम्मान करते थे।
7. कबीर कहां तक पढ़े थे?
उत्तर - जिस समय कबीर दास जी शिक्षा के योग्य हुए उस समय काशी में रामानंद प्रसिद्ध पंडित और विद्वान व्यक्ति थे कबीर ने कई बार रामानंद से मिलने और उन्हें अपना सिर से मनाने की विनती भी की लेकिन उस समय जातिवाद अपने चरम पर था इसलिए हर बार उन्हें आश्रम से भगा दिया जाता था।
8. कबीर दास के कितने गुरु थे?
उत्तर - परमेश्वर कबीर जी ने स्वामी रामानंद जी को गुरु बनाया लोगों के नजरों में स्वामी रामानंद जी गुरु थे लेकिन जब परमात्मा कबीर साहिब जी ने स्वामी रामानंद जी को तत्वज्ञान बताया तो उन्होंने कबीर साहिब जी को भगवान स्वीकार किया।
10 लाइन कबीर दास पर -
1. कबीर दास जी हिंदी साहित्य के निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे।
2. कबीर दास जी का जन्म सन 1398 में लहरतारा के निकट काशी में हुआ।
3. इनका पालन-पोषण नीलू तथा नीमा नामक जुलाहे दंपत्ति ने किया।
4. कबीर दास जी का विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ जिससे उन्हें दो संतान हुई।
5. इन्होंने अपने पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली रखा।
6. कबीर दास जी प्रसिद्ध वैष्णव संत रामानंद जी को अपना गुरु मानते थे।
7. कबीर दास जी ने अपनी रचना में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया
8. कबीर की वाणी को साखी, शब्द और रमैनी तीनों रूप में लिया गया है।
9. इनकी वाणियों का संग्रह इनके शिष्यों द्वारा बीजक नामक ग्रंथ में किया गया।
10. वह ईश्वर को मानते थे तथा किसी भी प्रकार के कर्मकांड के विरोधी थे
FAQ'S -
Q. कबीरदास का जीवन परिचय हिंदी में
A. कबीर दास या कबीर 15वी सदी के भारतीय राष्ट्रवादी कवि और संत थे। वे हिंदी साहित्य के भक्ति काल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमरगी उपशाखा के महानतम कवि हैं। इनकी रचनाओं में हिंदी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। इनकी रचनाएं सिखों के आदि ग्रंथ में सम्मिलित की गई हैं।
Q. कबीरदास जी का जीवन परिचय कैसे लिखें
A. कबीर दास जी हिंदी साहित्य के निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे कबीर दास जी का जन्म सन 1398 में लहर तारा के निकट काशी में हुआ था।
Q. कबीर दास की पूरी कहानी
A. काशी में एक ब्राह्मण रहते थे, वह भगवान श्री रामानंदाचार्य जी के शिष्य थे, वे प्रतिदिन श्री रामानंदाचार्य जी की सेवा में जाते थे श्री रामानंदाचार्य जी पंचगंगा घाट पर विराजते थे तथा प्रतिदिन शालिग्राम ग्राम सेवा किया करते थे, वह ब्राह्मण उनकी पूजा के लिए रोज तुलसी पत्र और फूल लेकर जाते थे।
Q. कक्षा 11 का कबीर दास का जीवन परिचय
A. भारत के महान संत और आध्यात्मिक कवि कबीरदास का जन्म वर्ष 1440 में हुआ था इस्लाम के अनुसार कबीर का अर्थ महान होता है।
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