डॉ संपूर्णानंद का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय एवं भाषा शैली || Dr Sampurnanand ka Jivan Parichay
डॉ० संपूर्णानंद
(जीवनकाल : 1890-1969 ई०)
डॉ.संपूर्णानंद का जीवन परिचय यहां पर सबसे सरल भाषा में लिखा गया है। यह जीवन परिचय कक्षा 9वीं से लेकर कक्षा 12वीं तक के छात्र के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें डॉ.संपूर्णानंद के सभी पहलुओं के विषय में चर्चा की गई है, तो इसे कोई भी व्यक्ति भी पढ़ सकता है।
जीवन परिचय –
डॉ० संपूर्णानंद का जन्म सन् 1881 ई० में काशी में हुआ था। इनके पिता का नाम विजयनंद था। इन्होंने बनारस से बी.एस.सी तथा इलाहाबाद से एल.टी. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं।
कवि परिचय : एक दृष्टि में
संपूर्णानंद जी ने स्वाध्याय से अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं के साथ-साथ दर्शन, धर्म, संस्कृत, ज्योतिष आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया। वे काशी, वृंदावन और इंदौर के विद्यालयों में अध्यापक पद पर कार्यरत रहे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के कारण इनको जेल भी जाना पड़ा। ये उत्तर प्रदेश के शीर्षस्थ नेताओं की पंक्ति में प्रतिष्ठित हुए और राज्य के शिक्षामंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री तथा राजस्थान के राज्यपाल भी रहे। राजनीति में सक्रिय रहते हुए इन्होंने प्रचुर मात्रा में उच्च कोटि के साहित्य का सृजन किया। कुछ समय तक इन्होंने अंग्रेजी की 'टुडे' तथा हिंदी की 'मर्यादा' पत्रिका का संपादन भी किया। 10 जनवरी, सन् 1969 ई० को इनका निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय –
डॉ संपूर्णानंद भारतीय दर्शन और संस्कृति के प्रकांड विद्वान थे। इनका संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाओं पर अच्छा अधिकार था। ये उर्दू एवं फारसी के भी अच्छे ज्ञाता थे। विज्ञान, दर्शन, योग, इतिहास, राजनीति आदि विषयों में इनकी गहन रुचि थी। ये एक सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं स्वतंत्रता सेनानी भी थे।
सन् 1936 ईस्वी में ये प्रथम बार विधानसभा के सदस्य चुने गए तथा सन् 1937 ई० में उत्तर प्रदेश के शिक्षामंत्री बने। सन् 1940 ई० में इन्हें 'अखिल भारतीय हिंदी-साहित्य सम्मेलन' का सभापति निर्वाचित किया गया। 'हिंदी-साहित्य सम्मेलन' ने इनकी कृति 'समाजवाद' पर इनको 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' प्रदान किया तथा 'साहित्यवाचस्पति' की उपाधि से सम्मानित भी किया। ये 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' के अध्यक्ष एवं संरक्षक भी थे। सन् 1962 ई० में इन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। सन् 1967 ई० में इस पद से मुक्त होने के पश्चात ये काशी लौट आए और जीवनपर्यंत 'काशी विद्यापीठ' के कुलपति रहे।
कृतियां –
निबंध-संग्रह -
चिद्धिलास
पृथ्वी से सप्तर्षि मंडल
ज्योतिर्विनोद
अंतरिक्ष यात्रा
फुटकर निबंध -
जीवन और दर्शन
जीवनी -
देशबंधु चितरंजनदास
महात्मा गांधी
राजनीति और इतिहास -
चीन की राज्यक्रांति
मिस्र की राज्यक्रांति
समाजवाद
आर्यों का आदि देश
सम्राट हर्षवर्धन
भारत के देशी राज्य आदि
धर्म -
गणेश
नासदीय सूक्त की टीका
ब्राह्मण सावधान
संपादन -
'मर्यादा' मासिक
'टुडे' अंग्रेजी दैनिक
इनके अतिरिक्त 'अंतर्राष्ट्रीय विधान', 'पुरुषसूक्त', 'व्रात्यकांड', 'भारतीय सृष्टिक्रम विचार', 'हिंदू देव परिवार का विकास वेदार्थ प्रवेशिका', 'स्फुट विचार', 'अधूरी क्रांति','भाषा की शक्ति तथा अन्य निबंध' आदि इनकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।
इस प्रकार डॉ संपूर्णानंद जी ने विविध विषयों पर लगभग 25 ग्रंथों तथा अनेक फुटकर लेखों की रचना की थी।
भाषा-शैली –
भाषा - संपूर्णानंद जी की भाषा सामान्यतः शुद्ध साहित्यिक भाषा है। इनकी भाषा में संस्कृत की तत्सम शब्दावली की प्रधानता है। इसका रूप शुद्ध, परिष्कृत और साहित्यिक है। इसमें गंभीरता है, प्रवाह है और अपना अलग सौष्ठव है।
संस्कृतनिष्ठ होते हुए भी इनकी भाषा स्पष्ट और सुबोध है, यद्यपि अत्यंत गंभीर विषयों का विवेचन करते समय इनकी भाषा कहीं-कहीं क्लिष्ट भी हो गई है। संपूर्णानंद जी ने प्रायः गंभीर विषयों पर लिखा है। गंभीर विषयों के विवेचन में कहावतों और मुहावरों को प्रयोग करने का अवसर बहुत कम मिलता है। इसीलिए इनकी भाषा में मुहावरों व कहावतों के प्रयोग नहीं के बराबर हैं। सामान्यतः संपूर्णानंद जी उर्दू शब्दों के प्रयोग से बचे हैं। फिर भी उर्दू के प्रचलित शब्द उनकी भाषा में कहीं-कहीं मिल ही जाते हैं।
भाषागत विशेषताएं –
संपूर्णानंद की भाषा में विषय के अनुकूल भाषा का प्रयोग हुआ है। दार्शनिक एवं विवेचनात्मक निबंधों में संस्कृत की तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग वे करते हैं। इसमें गंभीरता है किंतु दुरहता नहीं है।
सामान्यतः उनके निबंधों में सरल सहज भाषा का प्रयोग हुआ है। जिसमें अंग्रेजी एवं उर्दू के चलते हुए शब्द भी उपलब्ध हो जाते हैं। संपूर्णानंद जी की भाषा मर्मज्ञ थी। उन्हें शब्द के अर्थ की सही जानकारी थी यही कारण है कि उनकी भाषा में सटीक शब्द चयन हुए हैं।
संपूर्णानंद जी की भाषा में प्रायः मुहावरा नहीं मिलते एक-दो स्थानों पर ही सामान्य मुहावरे यथा : "धर्म संकट में पढ़ना, गम गलत करना" आदि उपलब्ध होते हैं। संपूर्णानंद जी की भाषा में स्वच्छता एवं सुबोधता का गुण व्याप्त है दार्शनिक विषयों पर लिखे गए निबंधों में विलष्टता नहीं आई है।
शैली - संपूर्णानंद जी ने अपनी रचनाओं में निम्नलिखित शैलियों का प्रयोग किया है–
विचारात्मक शैली - संपूर्णानंद जी के निबंधों के विषय प्रायः गंभीर होते हैं; अतः उनकी शैली अधिकांशतः विचारात्मक है। इसमें इनके मौलिक चिंतन को वाणी मिली है। इस शैली में प्रौढ़ता तो है ही; गंभीरता, प्रवाह और ओज भी है।
गवेषणात्मक शैली - इनके धर्म, दर्शन और आलोचना संबंधी निबंधों में गवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं। नवीन खोज और चिंतन के समय इस शैली का प्रयोग हुआ है। इसमें ओज की प्रधानता है तथा भाषा कहीं-कहीं क्लिष्ट हो गई है।
व्याख्यात्मक शैली - संपूर्णानंद जी ने विषय की स्पष्टता के लिए अनेक स्थलों पर व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली की भाषा सरल, संयत, शुद्ध और प्रवाहमयी है। वाक्य प्रायः छोटे हैं। कुल मिलाकर डॉ० संपूर्णानंद की शैली विचारप्रधान, पांडित्यपूर्ण, प्रौढ़ एवं परिमार्जित है।
सूत्र शैली - संपूर्णानंद जी ने अपने निबंधों में कहीं-कहीं सूत्र शैली का प्रयोग भी किया है। उनके निबंधों में पाई जाने वाली सुक्तियां इसी शैली का परिचय देती है।
आत्मा अजर अमर है।
आत्म साक्षात्कार का मुख्य साधन योगाभ्यास है।
एकाग्रता ही आत्मसाक्षात्कार की कुंजी है।
हिंदी साहित्य में स्थान –
डॉ० संपूर्णानंद हिंदी के प्रकांड पंडित, कुशल राजनीतिज्ञ, मर्मज्ञ साहित्यकार, भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के ज्ञाता, गंभीर विचारक तथा जागरूक शिक्षाविद् आदि के रूप में जाने जाते हैं। डॉ० संपूर्णानंद जी का हिंदी के गंभीर लेखकों में शीर्ष स्थान है।
युवावस्था और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी -
डॉक्टर संपूर्णानंद ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया सन 1936 ईस्वी में पहली बार यह कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा के सदस्य चुने गये। सन् 1937 में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित होने पर यह उत्तर प्रदेश के शिक्षा मंत्री नियुक्त हुए। शिक्षा मंत्री पद पर रहने के दौरान उन्होंने स्वयं को अपने को खगोलीय शास्त्र के सपने को पूरा करने में लगा दिया और इसी समय इन्होंने सरकारी संस्कृत कॉलेज (अब संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है) में खगोलीय वेधशाला स्थापित करने की योजना बनाई। सन 1954 में यह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने सन 1960 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और सन 1962 में यह राजस्थान के राज्यपाल नियुक्त हुए राजस्थान में राज्यपाल पद के दौरान इन्होंने 'सांगनेर' के बिना सलाखों की जेल के विचार को बढ़ावा दिया जिसका अर्थ है अपराधियों के लिए एक खुली हुई जेल इसमें कि अपराधी अपने परिवार के साथ रहे सके और बिजली व पानी के बिलों का भुगतान करने बाहर जा सके।
यह हमेशा से ही अपराधियों के लिए कड़ी सजा के खिलाफ थे। इनका अपराधियों के लिए बयान था कि, अपराधियों को दंडित प्रतिशोध के रूप में नहीं बल्कि, नवीनीकरण के रूप में किया जाना चाहिए। उनके समय में ही 1963 में राजस्थान की सरकार के द्वारा श्री संपूर्णानंद खुला बंदी सिविल शुरू किया गया था। सन 1967 में राज्यपाल पद से मुक्त होने पर यह काशी लौट आए और मृत्यु पर्यंत काशी विद्यापीठ के कुलपति बने रहे। कलाकारों और साहित्यकारों को शासकीय अनुदान देने का आरंभ देश में पहली बार इन्होंने ही शुरू किया। वृद्धावस्था की पेंशन भी इन्होंने आरंभ की डॉक्टर संपूर्णानंद को देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉक्टर की उपाधि से सम्मानित किया। इनको हिंदी साहित्य सम्मेलन की सर्वोच्च उपाधि 'साहित्य वाचस्पति' भी मिली थी। अनेकों हिंदी साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार "मंगलाप्रसाद पुरस्कार" भी प्राप्त कर चुके हैं। उनका निधन 10 जनवरी 1969 को वाराणसी में हुआ।
निष्कर्ष –
डॉक्टर संपूर्णानंद एक गंभीर विचारक और जागरूक शिक्षाविद के रूप में जाने जाते हैं साहित्य में इन्होंने एक विशाल राजनीतिज्ञ और पंडित के रूप में अपने को पेश।
Frequently asked questions (FAQ) -
प्रश्न - संपूर्णानंद का जन्म कहां हुआ था?
उत्तर - संपूर्णानंद का जन्म वाराणसी में हुआ था।
प्रश्न - संपूर्णानंद जी का जन्म कब हुआ था?
उत्तर - संपूर्णानंद जी का जन्म 1 जनवरी 1891 को हुआ था।
प्रश्न - संपूर्णानंद जी की मृत्यु कब हुई थी?
उत्तर - संपूर्णानंद जी की मृत्यु 10 जनवरी, 1969 को वाराणसी में हुई थी।
प्रश्न - संपूर्णानंद द्वारा संपादित पत्रिका का नाम क्या है?
उत्तर - संपूर्णानंद ने संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना में विशेष योगदान दिया। 'मर्यादा' नाम की हिंदी पत्रिका और 'टुडे' नामक अंग्रेजी दैनिक का संपादन भी किया।
प्रश्न - भारत का प्रथम विश्वविद्यालय कहां है?
उत्तर - भारत में ही दुनिया का पहला विश्वविद्यालय खुला था, जिसे नालंदा विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त काल के दौरान पांचवीं सदी में हुई थी, लेकिन सन् 1193 में आक्रमण के बाद इसे नेस्तनाबूद कर दिया गया था।
इसे भी पढ़ें - 👉👉
• भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी
• आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जीवनी
• सरदार पूर्ण सिंह का जीवन परिचय
• डॉ संपूर्णानंद का जीवन परिचय
यह Blog एक सामान्य जानकारी के लिए है इसका उद्देश्य सामान्य जानकारी प्राप्त कराना है। इसका किसी भी वेबसाइट या Blog से कोई संबंध नहीं है यदि संबंध पाया गया तो यह एक संयोग समझा जाएगा.
NCERT Math Solutions
ReplyDeletePost a Comment