कर्मवीर भरत खंडकाव्य का सारांश || Karmveer Bharat Khand Kavya Saransh Hindi
'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य से संबंधित जितने भी प्रश्न आपके बोर्ड परीक्षा में पूछे जाते हैं। उन सभी प्रश्नों को इसमें लिखा गया है। बहुत ही सरल भाषा में जैसे - सारांश, प्रमुख घटना का उल्लेख, प्रमुख सर्गों का सारांश, नायक का चरित्र चित्रण, कैकई का चरित्र चित्रण, राम का चरित्रांकन इत्यादि प्रश्न।
कर्मवीर भरत खंडकाव्य -
प्रश्न 1. 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य की कथावस्तु (सारांश) पर प्रकाश डालिए।
अथवा
कर्मवीर भरत खंडकाव्य की कथा संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए
अथवा
'कर्मवीर भारत' की किसी प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए।
उत्तर - 'कर्मवीर भरत'खंडकाव्य की कथावस्तु अत्यंत रोचक तथा प्रेरणादायक है। इसका कथानक चिर परिचित राम काव्य का एक लघु, किंतु महत्वपूर्ण अंश है। इसमें भारत को मानव सेवा की साकार मूर्ति के रूप में प्रस्तुत कर के कैकयी के युग युग से अभिशप्त रूप को उज्जवल मानवीय आदर्शों से संवारा गया है। इसकी प्रमुख घटनाएं निम्नलिखित हैं -
आगमन –
इसमें अयोध्या से दूत के ननिहाल पहुंचने से लेकर भारत के अयोध्या आने तक का वृतांत वर्णित है और अयोध्या में व्याप्त शोकपूर्ण वातावरण के साथ साथ तत्कालीन संस्कृति पर भी प्रकाश डाला गया है।
राजभवन –
इस सर्ग में भरत-कैकयी मिलन के साथ-साथ राम-वन-गमन की संक्षिप्त कथा के अतिरिक्त यह अभिव्यक्त किया गया है कि कैकयी ने राम को जन-सेवा तथा व्यक्तित्व के विकास के लिए वन भेजा था। किसी लोभ या कठोरता के कारण नहीं । सर्ग के अंत में अपनी नीति-कुशल माता की बुद्धि भ्रष्ट हुई जानकर मन में शोक का भार लिए भरत, शत्रुघ्न के साथ कौशल्या माता से मिलने के लिए चले जाते हैं।
कौशल्या-सुमित्रा मिलन –
इस सर्ग में भरत माता कौशल्या और सुमित्रा से मिलते हैं और दोनों माताएं उनकी आत्मा ग्लानि को दूर कर उन्हें सच्चे जीवन पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। सर्ग के अंत में सुमित्रा भरत से कहती हैं कि "तुम अपने मन के क्षोभ का त्यागकर दो और हम सब के पथ प्रदर्शक बनकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करो।"
आदर्श वरण –
इस सर्ग में गुरु वशिष्ठ भरत को संसार की नश्वरता के संबंध में बताते हुए कहते हैं कि इस जीवन के रंगमंच पर हम सभी अभिनय करते हैं। ईश्वर ही सूत्रधार तथा संचालक होता है। बाद में भरत पिता के भौतिक शरीर का दाह संस्कार करके श्रद्धा पूर्वक दान करते हैं। गुरु वशिष्ठ की उपस्थिति में एक सभा में सुमंत भरत के राजतिलक का प्रस्ताव रखते हैं। अयोध्या के राज सिंहासन पर आरूढ़ होने के स्थान पर भरत राम को वन से वापस ले आने का संकल्प लेकर वन की ओर प्रस्थान करते हैं।
वन-गमन –
इस सर्ग में भरत के वन-प्रस्थान का वर्णन है। इसमें निषादराज की राम भक्ति एवं सेवा भावना का भी सुंदर वर्णन हुआ है। निषादराज द्वारा सबको नदी के पार ले जाने के बाद भारत प्रयाग में भरद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुंचते हैं। राम के चित्रकूट में निवास का समाचार जानकर भरत और शत्रुघ्न पैदल ही वहां के लिए प्रस्थान कर देते हैं।
राम-भरत-मिलन –
इस सर्ग में राम से भरत का मिलन होता है। भरत और कैकयी राम से अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं। राम पिता के वचनों का पालन करने के लिए वन में ही रहना चाहते हैं, तब भरत उनकी चरण पादुका लेकर अयोध्या लौटते हैं, स्वयं नंदीग्राम में कुटी बनाकर रहते हैं तथा शत्रुघ्न की सहायता से राम के नाम पर अयोध्या का शासन चलाते हैं।
प्रश्न 2. 'कर्मवीर भरत' के द्वितीय सर्ग अथवा राजभवन सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - कर्मवीर भरत के राजभवन नामक द्वितीय सर्ग में कैकयी द्वारा राम को वन भेजने का कारण एवं भरत की आत्मग्लानि व्यक्त हुई है। कैकयी ने भरत को देखकर प्रेम से गले लगाया और अपने माता-पिता का कुशलक्षेम पूछा। भरत अपने पित्र-ग्रह का कुशलक्षेम बताकर उनसे अयोध्यापुरी की विकलता का कारण पूछते हैं।
दशरथ की मृत्यु का कारण –
कैकयी ने भरत को बताया कि राम अयोध्या में रहकर युगों से अभिशप्त व अभावों से पूर्ण वनवासियों की रक्षा ना कर सकेंगे; अतः तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए अयोध्या का राज्य मांगकर और राम को वन में भेजकर मैंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया था, लेकिन तुम्हारे पिता ने तुमको अयोध्या का राज देने की मेरी पहली बात तो मान ली, परंतु राम-वन-गमन की दूसरी मांग सुनकर प्राण त्याग दिए।
राम को वन भेजने के कारण –
कैकयी कहती हैं कि यद्यपि लोग मुझे नीच, क्रूर और स्वार्थी कहकर कलंकित करेंगे, परंतु मैंने जन जीवन को सुखमय बनाने के लिए ही राम को वन भेजने का वर मांगा था। राम में पौरुष और प्रतिभा है तथा मानवमात्र का कल्याण करने की उदात्त भावना है। उन्हें सिंहासन का मोह नहीं है, यही सोचकर मैंने असभ्य, अशिक्षित एवं अभावग्रस्त वनवासियों के कल्याण हेतु राम को 14 वर्ष के लिए वन भेजने का वर मांगा था। यह सुनकर तुम्हारे सत्यनिष्ठ पिता ने अपने प्राण त्याग दिए। जब मैंने पाषाण-हृदय बनकर, ममता को त्यागकर राम को उनके बनवास की बात बताई तो वे प्रसन्न होकर, वल्कल पहनकर सीता और लक्ष्मण के साथ तत्काल वन को चल दिए।
भरत को शोक –
अपनी माता के मुख से यह करूण कहानी सुनकर भरत स्तंभ रह गए और उनके नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी। वे 'हाय पिता! हाय राम!' कहकर भूमि पर गिर पड़े तथा खिन्न होकर अपने आभूषण उतार फेंके। अपने हाथों से घर में आग लगाने वाली अपनी माता की नीति उन्हें अच्छी ना लगी। तीनों लोकों में उन्हें ऐसी रानी नहीं दिखाई पड़ी, जिसमें एक साथ अपने पति को मृत्युलोक और पुत्र को वन भेज दिया हो। भरत ने कैकयी से कहा - " तुम्हारे द्वारा मेरे लिए राज्य मांगने के पीछे सभी लोग उसे मेरी भी इच्छा बताएंगे। हमारे वंश में बड़े पुत्र का राजतिलक होने की परंपरा है, यदि तुम चारों पुत्रों को वन में भेज देती तो तुम्हारा त्याग अमर हो जाता। तुम भरत को राज्य दिला कर और राम को वन में भिजवाकर अपने कार्य कौशल व बुद्धिमत्ता की दुहाई दे रही हो।"
राम में अलौकिक शक्ति –
अंत में कैकई ने समझाया कि तुम राम की असीम शक्ति पर विचार ना करके मात्र वन की भयंकरता से डर रही हो। उन्होंने वीर क्षत्राणी का पय-पन किया है। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए सुबाहू और ताड़का जैसे राक्षसों का वध किया है तथा जनकपुर में रावण के गर्व को चूरकर और सीता का वरण करके अपनी शक्ति की महिमा स्थापित की है। अतः तुम शोक ना करके जनहित के कार्य में लग जाओ।
अपनी नीति-कुशल माता की बुद्धि भ्रष्ट हुई जान मन में शोक का भार लिए भरत,शत्रुघ्न के साथ कौशल्या माता से मिलने के लिए चले जाते हैं।
प्रश्न 3. 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक कुछ इस प्रकार से है -
भरत और कौशल्या-मिलन –
कौशल्या के भवन में जाकर दोनों भाइयों ने माता के चरणों की वंदना की और उनके दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। उस समय माता कौशल्या के केश बिखरे हुए, वस्त्र मलीन, तन आभूषण सहित और आंखों में आंसू भरे हुए थे। उन्होंने दोनों पुत्रों को गले लगाकर बिलख-बिलखकर रोते हुए मन के विषाल को कम किया।
भरत ने माता कौशल्या से कहा कि मैं अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता हूं। यदि पिता जीवित रहते तो मेरे सौ सौ अपराध क्षमा कर देते। मैं अपनी माता की नीति नहीं समझ पाया। अयोध्या का राज मेरे लिए शूल बना हुआ है। यह कभी नहीं हो सकता कि राम वन में रहे और भरत राज्य सुख भोगता रहे। यह कहकर भरत ने माता कौशल्या के चरण पकड़ लिए।
माता कौशल्या ने भारत को गले लगाकर कहा कि इसमें ना तो तुम्हारा कोई दोष है और ना ही कैकयी का। कैकयी तो हमेशा राम का हित चाहती थी। राम भी उसका ही सर्वाधिक आदर करते थे। उसने भी अपना हृदय कठोर बनाकर ही जीवन रक्षा के लिए राम को वन भेजा है। अतः तुम अपने मन में किसी प्रकार का हीन भाव ना लाओ।
कौशल्या ने पुनः का कि यह तो सभी जानते हैं कि भरत को राज्य का लोभ नहीं है। तुम अपने मन की शंका और ग्लानि को दूर कर आत्मविश्वासपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करो। जब तक सरयू की धारा है, तब तक तुम्हारा तो सुयश रहेगा। इस प्रकार माता कौशल्या ने अपने स्नेह-सिक्त वचनों से भरत का उत्साह बढ़ाया तथा उन्हें समझाया कि अंतः करण को शुद्ध रखने वाले साहसी पुरुष कभी परनिंदा पर ध्यान नहीं देते। जो निंदा के जाल में फंसे रहते हैं वह जीवन में कभी महान कार्य नहीं कर सकते।
भरत और सुमित्रा मिलन -
राजभवन में भरत के आने का समाचार सुनकर सुमित्रा उनसे मिलने दौड़ी और भाव विह्वल होकर उन्होंने पुत्रों को गले से लगाया। भरत ने सुमित्रा से कहा - "हे मां! तुमने श्री राम को वन जाने से क्यों नहीं रोका? मेरी माता ने मुझे राज्य का लोभी जानकर मेरे सिर पर राजमुकुट रख दिया और राम के सिर पर जटा-मुकुट। यही शूल ह्रदय में चुभ रहा है। काश! वह मुझे वन भेज देती तो आज राम अवध का शासन करते।"
भरत की बात सुनकर सुमित्रा ने कहा - "बेटा तुम्हारी शिक्षा अयोध्या तक सीमित रही और राम ने पहले भी विश्वामित्र के साथ रहकर राक्षसों का वध किया है। वह वन के कष्टों से भली-भांति परिचित है। मुझे तुम्हारा मलिन मुख देखकर रोना आता है। मैंने वैधव्य तो सहन कर लिया, परंतु तुम्हें दुखी देखकर मैं जीवित नहीं रह सकती। नववधू उर्मिला, जिसने हंसते-हंसते पति लक्ष्मण को वन भेजा है, वह भी अपने अंदर के दुख को प्रकट नहीं होने देती, लेकिन तुम्हें विकल देखकर वह भी धैर्य धारण नहीं कर सकेगी। उधर वधू मांडवी भी तुम्हें दुखी देखकर अपने आंसू नहीं रोक पाएंगी। अतः तुम अपने मन का क्षोभ त्यागकर हमारे पथ प्रदर्शक बनकर अपने कर्तव्य को निभाओ।" इस प्रकार सुमित्रा ने दोनों पुत्रों को प्रेम से गले लगाकर गुरु के पास भेज दिया।
प्रश्न 4. 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग 'आदर्श वरण' का सारांश लिखिए।
अथवा
''चतुर्थ सर्ग 'आदर्श वरण' में सच्चे अर्थों में भरत की कर्मवीरता व्यक्त हुई है।'' उदाहरण सहित इस कथन की सत्यता की पुष्टि कीजिए।
अथवा
'कर्मवीर भरत' के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।
उत्तर - 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथानक कुछ इस प्रकार से है -
गुरु का समझाना –
भरत और शत्रुघ्न गुरु के पास पहुंचे और उनके चरणों में नमन कर संकोच के कारण कुछ भी कह ना सके। गुरु ने आशीर्वाद देकर भरत को उनके वर्तमान कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि दशरथ सत्य का पालन करने के कारण मरकर भी अमर हो गए; अतः अब तुम चिंता को छोड़कर पिता के शरीर का विधिवत् संस्कार करो। पिता के निर्जीव शरीर को देखकर भरत मूर्छित हो गये। चेतना लौटने पर वशिष्ठ ने भरत का हाथ पकड़कर उन्हें संसार की नश्वरता समझाई और कहा – "नाश और विकास, सुख और दुःख, मृत्यु और जीवन साथ-साथ चलते रहते हैं। इस जीवन के रंगमंच पर हम सभी अभिनय करते हैं। केवल ईश्वर ही सूत्रधार तथा संचालक होता है।
भरत करेगा राज्य, राम को भेज विजन में। जाने क्यों तुमने ऐसा सोचा था मन में।।
दशरथ का अंतिम संस्कार –
दशरथ के मृत शरीर को एक पालकी में रखकर सरयू-तट पर लाया गया। पुरवासी विकल होकर पीछे-पीछे चल रहे थे। भरत ने पिता के भौतिक शरीर का दाह-संस्कार किया और श्रद्धापूर्वक स्वर्ण-मणियों का दान दिया।
भरत के अभिषेक का प्रस्ताव तथा भरत का राम को लौटा लाने का संकल्प –
स्नानादि से शुद्ध होकर गुरु वशिष्ट की उपस्थिति में एक सभा बुलाई गई। सुमंत ने भरत के राज्याभिषेक को शास्त्रसम्मत, लोकसम्मत और पिता की आज्ञा बताते हुए उनके राज तिलक का प्रस्ताव रखा। सुमंत की बात सुनकर भरत ने विनय सहित कहा कि रघुकुल की युगो से रीति रही है कि बड़ा पुत्र ही शासन का अधिकारी होता है। अतः परंपरा-निर्वाह के लिए त्यागपूर्वक सिद्धांतों की रक्षा करना ही उचित है। राम सन्यासी होकर वन में चले गए, जिसके कारण पिता स्वर्ग सिधार गए। फिर वही राज्य मैं ग्रहण करूं, यह कैसे संभव है? मैं वन में जाकर, राम के चरण पकड़कर उनको लौटाकर लाऊंगा और मां के द्वारा लगाए गए कलंक को मिटाऊंगा –
वन में राम रहें, मैं बैठूं सिंहासन पर,
शोभा देता नहीं मुझे आज्ञा दें गुरुवर।
वन में जाकर चरण पकड़कर उन्हें मनाऊं,
जैसे भी हो सके राम को लौटा लाऊं।।
भरत के वचन सुनकर दुःख के समुद्र में डूबते हुए सबको मानो जीने का सहारा मिल गया। भरत के दृढ़ संकल्प को सुनकर शत्रुघ्न, कैकेई सहित सभी माताओं, पुरवासियों और वशिष्ट ने राम को अयोध्या लौटाने के लिए वन की ओर प्रस्थान किया। कुछ दूर तक तो भरत पैदल ही चले किंतु माता कौशल्या के कहने पर रथ पर बैठ गए। दिन भर चलने के पश्चात सभी ने तमसा नदी के तट पर विश्राम किया और प्रातः गुरु वशिष्ट की आज्ञा लेकर नदी को पार करके आगे बढ़े।
प्रश्न 5. 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के पंचम सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा
'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के 'वनगमन' सर्ग की कथा लिखिए।
उत्तर - 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के पंचम सर्ग का कथानक कुछ इस प्रकार से है -
निषादराज की शंका –
श्रृंगवेरपुर में गंगा के तट पर भरत के पहुंचने का समाचार पाकर और रथ पर इक्ष्वाकु वंश की पताका लहराती देखकर निषाद राज के मन में शंका उत्पन्न हो गई की कहीं राम को वन में अकेले जानकर राजमद में चूर भरत सेना सहित वन में विघ्न डालने के लिए तो नहीं आ रहे हैं। उसने सभी निषादों के साथ मिलकर निश्चय किया कि हम किसी को भी गंगा पार ना जाने देंगे। उसी समय एक वृद्ध निषाद ने कहा कि पहले उनके आने का रहस्य जान लेना चाहिए; क्योंकि गुरु वशिष्ठ और माता कौशल्या भी उनके साथ हैं।
भरत का सम्मान –
वृद्ध की बात सुनकर बिना विचारे अपने वीरभाव दर्शाने पर लज्जित निषादराज ने भरत के सत्कार हेतु कंद-मूल-फल मंगाए। गुरु वशिष्ट की बातों से तो निषादराज गदगद हो गए तथा भरत के समीप पहुंचने व उनके अपार स्नेह से अत्यधिक पुलकित हो गए। उनका यथोचित सत्कार करके नावों द्वारा सबको पार ले गए। यहां भरत भरद्वाज ऋषि के आश्रम में प्रयाग पहुंचे। वहां से चित्रकूट में राम के निवास का समाचार प्राप्त कर तथा चित्रकूट को समीप जानकर भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई पैदल ही आगे की ओर चल दिए।
प्रश्न 6. 'कर्मवीर भरत' के षष्ठ सर्ग अंतिम सर्ग 'राम-भरत-मिलन' का सारांश लिखिए।
उत्तर - सेना सहित भरत को सहसा वन में आते देखकर एक भील ने रामचंद्र जी को भरत-आगमन का समाचार सुनाया। लक्ष्मण का मन कुछ शंकित हुआ, परंतु भरत का नाम सुनकर पुलकित होकर राम चरण पादुका के बिना ही कुटी के बाहर आ गए। उन्होंने भरत को स्नेहसहित गले से लगा लिया। शत्रुघ्न ने राम और लक्ष्मण के चरण स्पर्श किए। इसके बाद दोनों भाइयों ने सीता के चरणों में शीश झुकाकर 'सदा सुखी जीवन' जीने का आशीर्वाद प्राप्त किया।
गुरु का आगमन सुनकर राम आदरसहित उन्हें आश्रम में ले गए। माताओं के चरण छूकर और सुमंत से भेंट करके राम अति हर्षित हुए। पिता की मृत्यु की बात सुनकर व्याकुल होकर 'हाय पिता' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े तथा गुरु के समझाने पर तर्पणादि कार्य करके निवृत्त हुए।
चित्रकूट में राम के प्रेम में विभोर हुए सबके कई दिन बीत गए। चित्रकूट के वन-उपवनों की प्राकृतिक सुषमा ने उनका मन मोह लिया था। अवसर पाकर भरत ने कहा कि मैं राम का प्रतिनिधि बनकर वन में निवास करूंगा। हम सबकी विनती स्वीकार कर राम अयोध्या जाए, कैकई ने राम से कहा – "पुत्र! मैं इस दुखमय नाटक की सूत्रधारिणी हूं। तुम राज्य प्राप्त करके मेरे कलंक को मिटाओ।'' गुरु ने भी कैकेई का समर्थन किया। कैकई के वचन सुनकर राम ने कहा – ''माता! इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। काल की गति ही वक्र है। भरत को राज्य का मोह नहीं है, फिर भी मैं अयोध्या जाकर राज्य नहीं कर सकता। भरत धर्मनिष्ठ होकर भी प्रेम- सिन्धु में डूब रहा है। यदि वह कहे तो मैं पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर अयश के सागर में डूब सकता हूं।
भरत ने कहा – ''हे प्रभु! मैं नंदीग्राम में कुटी बनाकर सिंहासन पर आपकी चरण पादुकाएं रखकर 14 वर्ष तक बनवासी की तरह निवास करूंगा और आपका प्रतिनिधि बनकर जनसेवा करता रहूंगा। आप मुझे 14 वर्ष की अवधि बीतने पर लौट आने का आश्वासन दीजिए।''
राम ने अपनी चरण-पादुकाएं दे दीं। भरत ने अयोध्या न जाकर नंदीग्राम में कुटी बनायी और सिंहासन पर राम की चरण-पादुकाएं रख दीं। शत्रुघ्न, भरत की आज्ञा से राज्य का कार्य चलाने लगे। इस प्रकार भरत ने अपने चरित्र का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया।
प्रश्न 7. 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के आधार पर उसके नायक भरत का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा
भरत को कर्मवीर की उपाधि क्यों दी गई? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के आधार पर प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा
'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के मुख्य पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर - श्री लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' द्वारा रचित 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के नायक भरत हैं। काव्य में आदि से अंत तक उनके कार्य एवं चरित्र का विकास हुआ है। उनके चरित्र की विशेषताएं इस प्रकार हैं–
आज्ञाकारी –
भरत अपने मामा के यहां गए हुए थे। दूतों के द्वारा अयोध्या लौट आने की गुरु की आज्ञा पाकर वे तुरंत अयोध्या लौट आते हैं। अयोध्या लौटने से पूर्व वे मामा की आज्ञा प्राप्त करना भी उचित समझते हैं।
राज्य के लोभ से रहित –
भरत को राज्य वैभव का लोभ नहीं है। कैकई से यह जानकर कि राम को वनवास और उन्हें राज्य मिला है, वे अत्यंत दुःखी होकर माता से कहते हैं–
भरत करेगा राज्य, राम को भेज विजन में।
जाने क्यों तुमने ऐसा सोचा था मन में।।
वे जीवन के सिद्धांतों की रक्षा के लिए राज्य को तुच्छ समझते हैं। नंदीग्राम में कुटी बनाकर बनवासी का जीवन व्यतीत करना राज्य के प्रति उनकी अनासक्ति का प्रतीक है।
मर्यादा एवं कर्तव्य के पालक –
भरत को अपने जीवन से भी अधिक अपने कुल की मर्यादा और कर्तव्य की रक्षा का ध्यान है। रघुकुल में जेष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता है, इस मर्यादा की रक्षा के लिए वे राज्य को ही नहीं, जीवन के सभी सुखों को भी न्यौछावर कर देते हैं। वे कहते हैं –
किंतु ज्येष्ठ को राजतिलक की परंपरा है।
राजा दुःख से नहीं, अनय से सदा डरा है।।
भ्रातृ-प्रेमी –
भरत के चरित्र में राम के प्रति भ्रातृ-प्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ है। उनके लिए राजतिलक का प्रस्ताव किए जाने पर वे कहते हैं –
वन में राम रहें, मैं बैठूं सिंहासन पर,
शोभा देता नहीं मुझे आज्ञा दें गुरुवर।
वन में जाकर चरण पकड़कर उन्हें मनाऊं,
जैसे भी हो सके राम को लौटा लाऊं।।
वे राम को लौटाने का संकल्प कर पैदल चलने के लिए तैयार हो जाते हैं।
सच्चे योगी –
भरत सच्चे योगी हैं। वे राजभवन में रहकर भी बनवासी का जीवन बिताते हैं। वे राज सुख को ठुकराकर अपने योगी होने का परिचय देते हैं। राम वन में रहकर योगी का जीवन बताते हैं तो वे राजभवन में रहकर भी योगी बने हुए हैं। वह नंदीग्राम में कुटी बनाकर कुश-आसन पर बैठकर राज्य-कार्य का संचालन करते हैं।
इस प्रकार भरत आज्ञाकारी, कर्तव्य और मर्यादापालक, राज्य-लोभ से दूर भ्रातृ-प्रेमी और सच्चे कर्मयोगी हैं। साथ ही उनमें पितृ-भक्ति, गुरु-निष्ठा, निश्छलता, स्पष्टवादिता, विनम्रता आदि गुण निहित हैं। वे त्याग की साक्षात् मूर्ति, शील और संयम के साक्षात् अवतार तथा आदर्श महापुरुष हैं। उनका चरित्र महान् और अनुकरणीय है।
प्रश्न 8. 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के आधार पर राम का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर - 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के राम, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनका चरित्र-चित्रण अंतिम सर्ग में हुआ है, किंतु उससे पूर्व कैकेई, सुमित्रा आदि के कथन भी उनके चरित्र पर प्रकाश डालते हैं।
संकल्पवान –
राम सिद्धांतप्रिय हैं। वह एक बार जो संकल्प कर लेते हैं, उसे पूरा करके ही मानते हैं। इसीलिए वे भरत और परिजनों के अत्यधिक आग्रह करने पर भी अपने संकल्प से पीछे नहीं हटते और अयोध्या वापस नहीं लौटते। वे स्पष्ट रूप से कह देते हैं –
क्षमा करें सब लोग, विवशता मेरे मन की,
अपनायी है कठिन राह मैंने जीवन की।
इतना होने पर भी अब मैं पुर को जाऊं?
राज्य करूं या पुत्रधर्म आदर्श मिटाऊं?
संवेदनशील –
सिद्धांतों के प्रति दृढ़ होते हुए भी वे भरत के शील और भक्ति के सम्मुख भाव-विह्वल हो जाते हैं। उनके मन में भरत के प्रति अपार प्रेम उमड़ रहा है। वे भरत के आग्रह से प्रसन्न होकर कह उठते हैं–
भाई जो भी कहो वही मैं आज करूंगा।
तुम कह दो तो अयश सिंधु में कूद पड़ूंगा।।
मर्यादा पुरुषोत्तम –
राम ने भरत की बात मानकर उन्हें अपनी खड़ाऊं दे दी और सबको ससम्मान विदा किया। उन्होंने कहीं भी मर्यादा की सीमा रेखा नहीं लांघी। वे रघुकुल की मान-मर्यादा की पूर्णतः रक्षा करते हैं तथा अपने माता-पिता व गुरुजनों की हर आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं। उनके इन्हीं गुणों के कारण ननिहाल में भरत दूत से पूछते हैं –
रघुकुल के आदर्श जिन्हें लगते हैं प्यारे
कहो कुशल से तो हैं भ्राता राम हमारे।
द्वेषभाव से रहित –
यद्यपि राम को वन भेजने में कैकेई का प्रमुख हाथ रहा है, फिर भी राम को कैकेई के प्रति कहीं तनिक भी रोष नहीं है, अपितु वे कैकेई की प्रशंसा करते हुए कहते हैं–
मां ने नारी को अमरत्व प्रदान किया है।
मोड़ा है इतिहास, नया आदर्श दिया है।।
शक्ति-शील सौन्दर्य समन्वित –
राम शक्तिशाली होने के साथ-साथ शील और सौंदर्य से युक्त एक ऐसे महामानव हैं, जिन्होंने अपनी सारी शक्ति जन सेवा के लिए ही समर्पित कर दी है, तभी तो कैकेयी उनके संबंध में कहती है –
राम हमारा शक्ति, शील, सौन्दर्य समन्वित
उसका जीवन ही जन-सेवा हेतु समर्पित।।
दीन-रक्षक और दुष्ट संहारक –
राम दीन-हीन व्यक्तियों की सदैव सहायता करते हैं, उनकी रक्षा करते हैं। जहां वे असहायों की सहायता हेतु सदैव तत्पर रहते हैं वहीं दुष्टों के लिए वे काल के समान हैं। उनके इस रूप को कैकेई निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त करती है –
दुःखी जनों को देख नयन उनके भर आते,
देख दुष्ट को लाल वही लोचन हो जाते।।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि 'कर्मवीर भरत' खंडकाव्य के राम एक आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र के धारक हैं।
प्रश्न 9. 'कर्मवीर भरत' के आधार पर कैकई का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर - 'कर्मवीर भरत' के स्त्री पात्रों में कैकेई का चरित्र सर्वोपरि है। उसमें साहस, दृढ़ता, राजनीतिक कुशलता, विवेकशीलता, जनहित भावना, पुत्र-प्रेम आदि आदर्श भारतीय नारी के गुण विद्यमान हैं। उसके चरित्र की विशेषताएं इस प्रकार हैं–
युद्ध निपुण वीरांगना –
कैकेई का चरित्र एक वीरांगना का चरित्र है। उसने नारी होकर अबला बनना नहीं सीखा है। युद्ध भूमि में भी वह अपने पति के साथ गई थी और संकट में उनके प्राणों की रक्षा की थी। निम्नलिखित पंक्तियों से उसका वीरत्व प्रकट होता है –
असि अर्पण कर मैंने रण कंकण बांधा है,
रणचंडी का व्रत मैंने रण में साधा है।
मेरे बेटों ने पय पिया सिंहनी का है,
उनका पौरुष देख इंद्र मन में डरता है।।
आदर्श माता –
कैकेई स्वाभिमानी होने के साथ-साथ आदर्श माता भी है। वह अपने पुत्रों को केवल सुखी ही नहीं देखना चाहती, अपितु उनके गौरव को भी बढ़ाना चाहती है। वह अपने पुत्रों को उनकी शिक्षा-दीक्षा और सुरुचि के अनुसार कार्य में नियोजित करना चाहती है। वह प्रत्येक पुत्र के जीवन का विकास उसकी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहती है, जिससे वे समाज, राष्ट्र और मानवता की अधिकाधिक सेवा कर सकें। भरत से भी अधिक वह राम से प्यार करती है। वह राम और भरत में भेद नहीं मानती –
राम-भरत में भेद, हाय कैसी दुर्बलता,
आगे चलते राम, भरत तो पीछे चलता।
राष्ट्रीय और समाजवादी दृष्टिकोण अपनाने वाली आदर्श नारी –
कैकेई के चरित्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता उसका राष्ट्रीय और समाजवादी दृष्टिकोण है। उसकी विचारधारा केवल अपने पुत्रों और परिवार तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह संपूर्ण राष्ट्र और मानवता का भी कल्याण सोचती है। उसका मानवीय दृष्टिकोण अत्यधिक उदार है –
जिन्हें नीच पामर कहकर हम दूर भगाते।
वे भी तो अपने हैं मानवता के नाते।।
उन्हें उठाना क्या राजा का धर्म नहीं है।
गले लगाना क्या मानव का कर्म नहीं है।।
राजनीति में कुशल –
कैकेई नारी होकर भी राजनीति में पूर्ण कुशल है। वह राजनीति के दांव-पेच समझती है और समय के अनुसार उनका प्रयोग करना भी जानती है। राम को वन भेजने में भी उसकी राजनीतिक सूझ-बूझ का प्रमाण मिलता है। वनवासियों को अनुशासन सिखाना भी उसके अनुसार एक राजनीतिक दायित्व है।
अपराध स्वीकार करने वाली –
खंडकाव्य के कथानक के अनुसार कैकेई ने जो कुछ भी किया उसके पीछे उसका कोई भी स्वार्थ नहीं था और ना ही कोई बुरा भाव था। परंतु जब परिस्थितियां बदल जाती हैं तथा परिणाम बुरे निकलने लगते हैं तो कैकेयी अपने आप को अपराधिनी स्वीकार कर लेती है तथा स्वयं ही अपने विषय में कह उठती है –
इस दुखांत नाटक की मैं हूं सूत्रधारिणी
हरे-भरे रघुकुल में प्रलय-विनाशकारिणी।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत खंडकाव्य में कैकेई आदर्श माता, वीर स्त्री तथा समाजवादी दृष्टिकोण को अपनाने वाली आदर्श नारी है। निशंक जी ने कैकेई के युग-युग से अभिशप्त चरित्र को आधुनिक परिवेश में संवारने का सफल प्रयत्न किया है।
1. कर्मवीर भरत खंडकाव्य के लेखक कौन हैं?
उत्तर - कर्मवीर भरतखंड गांव के लेखक 'लक्ष्मीशंकर मिश्र' निशंक जी हैं।
2. खंडकाव्य के आधार पर राजा दशरथ की मृत्यु कैसे हुई?
उत्तर - राजा दशरथ की मृत्यु का कारण माता केकैई थी। राजा दशरथ के अत्यधिक प्रिय पुत्र भगवान श्री राम को वनवास देने के लिए माता केकैई ने कहा जिससे सुनने के पश्चात उनको बहुत ही पीड़ा हुई। राजा दशरथ ने कैकई को समझाया कि आप इस वचन को बदल लीजिए। लेकिन माता के कई अपनी बात पर अडिग रही और अंत में वनवास देने के पश्चात राजा दशरथ की मृत्यु हो गई।
3. भरत माता केकैई पर क्रोधित क्यों हुए?
उत्तर - जब भरत को सूचना मिलती है कि भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास दिया गया है तो वह सीधे माता केकैई के पास आते हैं और पूछते हैं कि आपने उन्हें वनवास क्यों भेजा। वह बताती हैं कि यह सारा राज सिंहासन तुम्हारा है। अब तुम अयोध्या के राजा हो। यह सुनकर भरत माता केकैई पर अत्यधिक क्रोधित होते हैं।
4. कर्मवीर भरत खंडकाव्य के आधार पर राम का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर - राम सिद्धांतप्रिय हैं। वह एक बार जो संकल्प कर लेते हैं, उसे पूरा करके ही मानते हैं। इसीलिए वे भरत और परिजनों के अत्यधिक आग्रह करने पर भी अपने संकल्प से पीछे नहीं हटते और अयोध्या वापस नहीं लौटते। सिद्धांतों के प्रति दृढ़ होते हुए भी वे भरत के शील और भक्ति के सम्मुख भाव-विह्वल हो जाते हैं। उनके मन में भरत के प्रति अपार प्रेम उमड़ रहा है। राम ने भरत की बात मानकर उन्हें अपनी खड़ाऊं दे दी और सबको ससम्मान विदा किया। उन्होंने कहीं भी मर्यादा की सीमा रेखा नहीं लांघी। वे रघुकुल की मान-मर्यादा की पूर्णतः रक्षा करते हैं तथा अपने माता-पिता व गुरुजनों की हर आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं।
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