अग्रपूजा खंडकाव्य का सारांश || Agrapooja Khandkavya ka Saransh
अग्रपूजा खंडकाव्य -
प्रश्न 1. 'अग्रपूजा' खंडकाव्य का सारांश/कथासार, कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'अग्रपूजा' खंडकाव्य की प्रमुख घटना का वर्णन, द्वितीय सर्ग का कथानक कीजिए।
उत्तर - श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित 'अग्रपूजा' नामक खंडकाव्य का कथानक श्रीमद्भागवत और महाभारत से लिया गया है। संपूर्ण काव्य का कथानक 6 सर्गों में विभक्त है। उनका सारांश इस प्रकार है–
प्रथम सर्ग की कथा –
'अग्रपूजा' खंडकाव्य का प्रथम सर्ग 'पूर्वाभास' है। इस सर्ग की कथा का प्रारंभ दुर्योधन द्वारा समस्त पांडवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवाने से होता है। दुर्योधन को पूर्ण विश्वास हो गया कि पांडव जलकर भस्म हो गए, परंतु पांडवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मंडप में पहुंचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। कुंती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पांचों भाइयों से कर दिया गया।
धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण और विदुर से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पांडवों को आधा राज्य देने हेतु सहमत हो गए।
द्वितीय सर्ग की कथा –
'अग्रपूजा' खंडकाव्य का दूसरा सर्ग 'सभारंभ' है। सर्ग का प्रारंभ श्रीकृष्ण को साथ लेकर पांडवों के खांडव वन पहुंचने से होता है। वह विकराल वन था। श्री कृष्ण ने विश्वकर्मा से उस वन-प्रदेश में पांडवों के लिए इंद्रपुरी जैसे भव्य नगर का निर्माण कराया। इस क्षेत्र का नाम इंद्रप्रस्थ रखा गया। हस्तिनापुर से आए हुए अनेक नागरिक और व्यापारी वहां बस गए। युधिष्ठिर को भलीभांति प्रतिष्ठित करने के बाद व्यास और कृष्ण इंद्रप्रस्थ से चले गए।
तृतीय सर्ग की कथा –
'अग्रपूजा' खंडकाव्य का तीसरा सर्ग 'आयोजन' है। सर्ग की आरंभिक कथा के अनुसार पांडवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अतः नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रोपदी को एक एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रोपदी किसी अन्य पति के साथ हो और दूसरा कोई भाई वहां पहुंचकर उन्हें देख ले तो वह 12 वर्ष के लिए वन में रहेगा। इस नियम भंग के कारण अर्जुन 12 वर्षों के लिए वन को चले गए।
अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारका पहुंचे। वहां श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इंद्रप्रस्थ लौटे। युधिष्ठिर का राज्य सुख और शांति से चल रहा था। 1 दिन देवर्षि नारद इंद्रप्रस्थ नगरी में आए। उन्होंने पांडु का संदेश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इंद्रलोक में निवास मिल जाएगा। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। इस प्रकार अब संपूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया और युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ योजनाबद्ध तैयारी प्रारंभ कर दी।
चतुर्थ सर्ग की कथा –
'अग्रपूजा' खंडकाव्य का चतुर्थ सर्ग 'प्रस्थान' है। इस सर्ग में राजसूय यज्ञ से पूर्व की तैयारियों का वर्णन किया गया है। राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्री कृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गए। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पांडवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने सोचा कि इंद्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो मिलकर गड़बड़ी कर सकते हैं; अतः वे अपनी विशाल सेना लेकर इंद्रप्रस्थ पहुंच गए। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया। श्री कृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मजी और शिशुपाल ईर्ष्या से तिलमिला उठे।
पंचम सर्ग का सारांश –
'अग्रपूजा' खंडकाव्य का पंचम सर्ग 'अग्रपूजा' है। राजसूय यज्ञ प्रारंभ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारू व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बांट दिए थे। श्री कृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। जब भीष्म ने गंभीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएं कि अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरंत कहा कि श्री कृष्ण ही परम पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया। सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्री कृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात का विरोध किया और श्री कृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया फिर भी शिशुपाल न माना और उनकी कटु निंदा करता रहा, अंततः श्रीकृष्ण ने सुदर्शन-चक्र से उसका सिर काट दिया।
षष्ठम सर्ग की कथा –
'षष्ठम सर्ग' उपसंहार में उल्लिखित शिशुपाल और कृष्ण के विवाद का यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह तत्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ-कार्य संपन्न किया। युधिष्ठिर ने उन्हें दान-दक्षिणा देकर उनका यथोचित सत्कार किया। तत्वज्ञानी ऋषियों ने युधिष्ठिर को हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिसे युधिष्ठिर ने विनम्र भाव से शिरोधार्य किया।
प्रश्न 2. 'अग्रपूजा' खंडकाव्य के आधार पर 'पूर्वाभास' सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
उत्तर - दुर्योधन ने समस्त पांडवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवा दी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि पांडव जलकर भस्म हो गए, परंतु पांडवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मंडप में पहुंचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। राजाओं ने ब्राह्मण देश धारी अर्जुन पर आक्रमण कर दिया, किंतु अर्जुन और भीम ने अपने पराक्रम से उन्हें परास्त कर दिया। बलराम और श्रीकृष्ण भी उस स्वयंवर में उपस्थित थे। उन्होंने छिपे हुए वेश में भी पांडवों को पहचान लिया और रात में उनके निवास-स्थल पर उनसे मिलने हेतु गए। राजा द्रुपद को जब अपने पुत्र से पांडवों की वास्तविकता ज्ञात हुई तो द्रुपद ने उन्हें राजभवन में आमंत्रित किया और कुंती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पांचों भाइयों से कर दिया गया।
इधर दुर्योधन पांडवों को जीवित देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगा। शकुनी उसे और भी उकसाने लगा। वह कर्ण को लेकर धृतराष्ट्र के पास पहुंचा और पांडवों के विनाश की अपनी इच्छा पर चर्चा की। धृतराष्ट्र ने उसे अपने भाई पांडवों के साथ प्रेम पूर्वक रहने की सलाह दी, लेकिन वह नहीं माना। कर्ण ने उसे पांडवों का युद्ध करके जीत लेने हेतु प्रेरित किया। लेकिन उसने कर्ण की सलाह भी नहीं मानी। अन्ततः धृतराष्ट्र चिंतित होकर भीष्म, द्रोण और विदुर से परामर्श करके सत्य न्याय की रक्षा के लिए पांडवों को आधा राज्य देने हेतु सहमत हो गए। विदुर कुंती, द्रौपदी सहित पांडवों को साथ लेकर हस्तिनापुर आए। जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर उनसे खांडव वन को पुनः बसाने के लिए कहा। श्री कृष्ण ने धृतराष्ट्र से पांडवों को आशीर्वाद देने के लिए कहा। धृतराष्ट्र ने खेद प्रकट करते हुए प्रसन्न मन से उन्हें विदा कर दिया। दुर्योधन, कर्ण, दु:शासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि पांडवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।
प्रश्न 3. 'अग्रपूजा' खंडकाव्य के 'आयोजन सर्ग' (तृतीय सर्ग) का कथासार अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'अग्रपूजा' के आधार पर जरासंध वध का वर्णन कीजिए।
उत्तर - संसार में धन, धरती और स्त्री के कारण संघर्ष होते आए हैं। कौरव धन और धरती के पीछे ही पागल थे। पांडवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अतः नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी अन्य पति के साथ हो और दूसरा कोई भाई वहां पहुंचकर उन्हें देख ले तो वह 12 वर्ष के लिए वन में रहेगा। 1 दिन चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा ली। वह राजभवन में न्याय और सहायता के लिए पहुंचा। अर्जुन उसकी रक्षा के लिए शस्त्रागार से शस्त्र लेने गए तो वहां उन्होंने द्रौपदी को युधिष्ठिर के साथ देख लिया। उन्होंने चोरों से गायें छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दीं और नियम-भंग के कारण 12 वर्षों के लिए वन को चले गए।
अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारका पहुंचे। वहां श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इंद्रप्रस्थ लौटे। श्री कृष्ण भी अपनी बहन के लिए बहुत सारा दहेज लेकर इंद्रप्रस्थ आए और बहुत दिनों तक रुके। श्री कृष्ण और अर्जुन ने मिलकर अग्नि देव के हित हेतु खांडव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को कपिध्वज नामक रथ, वरुण ने गांडीव धनुष और दो अक्षय तूणीर उपहार में दिए। श्री कृष्ण को अग्निदेव ने कौमोदकी गदा और सुदर्शन चक्र प्रदान किए। यहीं अग्नि की लपेटों से व्याकुल मय नामक राक्षस ने सहायता के लिए आर्त पुकार की। अर्जुन ने उसे बचा लिया और उसने कृतज्ञतापूर्वक कृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए एक अलौकिक सभा-भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को 'देवदत्त शंख' और भीम को एक भारी गदा भेंट की।
युधिष्ठिर का राज्य सुख और शांति से चल रहा था। 1 दिन देवर्षि नारद इंद्रप्रस्थ नगरी में आए। उन्हें पांडु का संदेश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इंद्रलोक में निवास मिल जाएगा।
युधिष्ठिर ने नारद के द्वारा संदेश भेजकर सलाह के लिए श्री कृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बताएं। श्री कृष्णा ने सलाह दी कि जब तक जरासंध का वध ना होगा, राजसूय यज्ञ संपन्न नहीं हो सकता। श्री कृष्ण ने जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासंध ने भीम को ही अपने जोड़ का समझकर उससे मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। जरासंध के थक जाने पर भीम ने उसकी एक टांग को पैर से दबाकर दूसरी टांग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। इसके बाद उन्होंने समस्त बंदी राजाओं को मुक्त कर दिया और जरासंध के पुत्र सहदेव को वहां का राजा बनाया, जिसने युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर ली। इंद्रप्रस्थ लौटकर श्री कृष्ण युधिष्ठिर से विदा लेकर द्वारका चले गए। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। चारों भाइयों ने सभी राजाओं को जीतकर युधिष्ठिर के अधीन कर दिया। इस प्रकार अब संपूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया।
युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारंभ कर दी। एक भव्य विशाल यज्ञशाला बनाई गई। सभी दिशाओं में निमंत्रण पत्र भेजे गए। कौरवों सहित अनेकानेक राजा यज्ञ में भाग लेने के लिए इंद्रप्रस्थ में एकत्र होने लगे। सबका यथोचित सत्कार करके उपयुक्त आवासों में ठहराया गया। वहां देव, मनुज और दानव सभी स्वभाव के लोग आमंत्रित एवं एकत्रित हुए।
प्रश्न 4 . 'अग्रपूजा' के आधार पर शिशुपाल वध का वर्णन संक्षेप में कीजिए।
अथवा
'अग्रपूजा' खंडकाव्य के 'राजसूय यज्ञ' सर्ग (पंचम सर्ग) का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'अग्रपूजा' खंडकाव्य के पंचम सर्ग (राजसूय यज्ञ) का सारांश लिखिए।
उत्तर - यज्ञ प्रारंभ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारू व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बांट दिए थे। श्री कृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। यज्ञ कार्य करने आए ब्राह्मणों के चरण श्री कृष्ण ने धोये। जब वहां बलराम और सात्यकि के साथ श्री कृष्ण पधारे तो सभी लोगों ने उठकर उनका सम्मान किया। केवल शिशुपाल ही उनके आगमन को अनदेखा-सा करते हुए जानबूझकर बैठा रहा। सबकी आंखें श्रीकृष्ण पर टिकी रह गई। तभी भीष्म ने गंभीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएं कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति कौन है, जिसे सर्वप्रथम पूजा जाए; अर्थात अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरंत कहा कि यहां श्री कृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं।
भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया और सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्री कृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात का विरोध किया। भीम को क्रोध आया, पर भीष्म ने भीम को रोक दिया। भीष्म बड़े संयम और शांत भाव से शिशुपाल के तर्कों का उत्तर देते हुए बोले कि ''स्वार्थ की हानि और ईर्ष्या के वशीभूत होने पर मानव अंधा हो जाता है। उसे गुण भी दोष और यश की सुगंध दुर्गंध प्रतीत होती है।'' उन्होंने कहा कि मनुष्यता की महिमा पूर्ण रूप में कृष्ण में ही दिखाई पड़ती है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ये पूर्णरूपेण डूबे हुए हैं। इनका संपूर्ण जीवन ही योग-भोग के जनक सदृश हैं। इनके समान रूप में जन्म लेने वाला ही इन्हें जान सकता है। सीमित दृष्टि और द्वेष बुद्धि रखने वाला व्यक्ति इन्हें नहीं जान सकता। ये पुष्प की पंखुड़ियों से भी कोमल हैं; दया, प्रेम, करुणा के भंडार हैं तथा शील, सज्जनता, विनय और प्रेम के प्रत्यक्ष शरीर हैं।
ये अनीति को मिटाते हैं तथा धर्म-मर्यादा की स्थापना करते हैं। इस तरह से भीष्म ने श्री कृष्ण के गुणों का वर्णन किया, फिर भी शिशुपाल अनर्गल बकता ही रहा। अंततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूं, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। यह कहकर सहदेव ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के चरण धोए और फिर अन्य सभी पूज्यों के पाद-प्रक्षालन किए। शिशुपाल तुरंत क्रोधातुर होकर श्री कृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्री कृष्ण मुस्कुराते रहे। शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण-ही-कृष्ण दिखाई दे रहे थे। वह इधर-उधर दौड़कर घूंसे मारने की कोशिश करता हुआ हांफने लगा और श्री कृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्री कृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूं। फिर भी शिशुपाल न माना और उनकी कटु निंदा करता रहा, अंततः श्री कृष्ण ने सुदर्शन-चक्र से उसका सिर काट दिया। युधिष्ठिर ने शिशुपाल के पुत्र को उसके बाद चेदि राज्य का राजा घोषित कर दिया।
प्रश्न 5. 'अग्रपूजा' खंडकाव्य के नायक (सर्वश्रेष्ठ पात्र) श्री कृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा
'अग्रपूजा' खंडकाव्य के आधार पर श्री कृष्ण की चारित्रिक विशेषताएं लिखिए।
अथवा
'अग्रपूजा' खंडकाव्य नायक के गुणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
'अग्रपूजा' के किसी प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर - श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित 'अग्रपूजा' खंडकाव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं। संपूर्ण काव्य में श्रीकृष्ण ही प्रमुख पात्र के रूप में उभर कर आये हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सर्वप्रथम श्री कृष्ण की ही पूजा होती है। वे ही समस्त घटनाओं के सूत्रधार हैं। हमें उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं।
लीलाधारी दिव्य पुरुष –
कवि ने मंगलाचरण में श्री कृष्ण के विष्णु-रूप का स्मरण किया है। विश्वकर्मा से भयानक खांडव वन में अलौकिक नगर का निर्माण करवा देने, शिशुपाल को अनेक रूपों में दिखाई देने से वे पाठकों को अलौकिक पुरुष दिखाई प्रतीत होते हैं।
शिष्ट एवं विनयी –
श्री कृष्ण सदा बड़ों के प्रति नम्र भाव रखते हैं। वे कुंती आदि पूज्यजनों के सम्मुख शिष्टाचार और नम्रता का व्यवहार करते हैं। वे युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य स्वेच्छा से ग्रहण करते हैं।
पांडवों के परम हितैषी –
श्री कृष्ण पांडवों के परम हितैषी हैं। वे उनके सभी कार्यों में पूर्ण सहयोग देते हैं। वे पांडवों को लाक्षागृह में भस्म होने से बचाते हैं। द्रौपदी के स्वयंवर में पांडवों को पहचानकर उनसे आत्मीयता से मिलने जाते हैं। वे पांडवों के लिए इंद्रपुरी सदृश्य नगर का निर्माण करवाते हैं और उनके राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए जरासंध को मारने की योजना बनाते हैं। राजसूय यज्ञ में किसी विरोधी राजा के विघ्न डालने की आशंका से वे स सैन्य यज्ञ में पहुंचते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि श्री कृष्ण पांडवों के शुभचिंतक थे।
अनुपम सौंदर्य से युक्त –
श्री कृष्ण अलौकिक महापुरुष और अनुपम सौंदर्यशाली थे। इंद्रप्रस्थ जाते समय सभी नगरवासी उनके सौंदर्य को देखने के लिए दौड़ पड़े थे। इंद्रप्रस्थ की नारियां उनकी मधुर मुस्कान पर मुग्ध होकर न्यौछावर हो जाती हैं–
देखा, सुना न पढ़ा कहीं भी, ऐसा अनुपम रूप अमंद।
ऐसी मधु मुस्कान न देखी, हैं गोविंद सदृश गोविंद।।
धैर्यवान् एवं शक्तिसंपन्न –
श्री कृष्ण परमवीर थे, यही कारण है कि वे केवल अर्जुन और भीम को साथ लेकर जरासंध का वध करने पहुंच जाते हैं। शिशुपाल की अशिष्टता और नीचता को वे काफी समय तक सहन करते रहे। सभी के समझाने पर भी जब वह दुर्वचन कहने से नहीं माना तो उनकी शक्ति प्रस्फुटित हो गई और सुदर्शन चक्र से उन्होंने शिशुपाल का वध कर दिया।
धर्म एवं मर्यादापालक –
श्री कृष्ण राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोते हैं एवं यज्ञ में मर्यादा की रक्षा के कारण ही शिशुपाल के निंदा शब्दों को शांत भाव से क्षमा करते हैं। वे आदर्श मानव हैं। भीष्म के शब्दों में –
शील, सुजनता, विनय, प्रेम के केशव हैं प्रत्यक्ष शरीर।
मिटा अनीति, धर्म मर्यादा स्थापन करते हैं यदुवीर।।
अनासक्त योगी –
श्री कृष्ण के व्यक्तित्व में भोग और योग का सुंदर समन्वय है। वे सांसारिक होते हुए भी संसार से निर्लिप्त हैं। जल में कमल-पत्र की भांति वे मनुष्यों के सभी कार्यों को अनासक्त रहकर पूर्ण करते हैं। सबके पूजनीय होने के कारण ही उन्हें अग्रपूजा के लिए चुना जाता है।
इस प्रकार कृष्ण अत्यंत शिष्ट और विनम्र हैं। वे पांडवों के परम हित-चिंतक और अनुपम सौंदर्यवान हैं। वे धर्म एवं मर्यादा के पालक, अलौकिक, शक्ति संपन्न, अनासक्त योगी एवं दिव्य गुणों से संपन्न महामानव हैं।
प्रश्न 6. 'अग्रपूजा' खंडकाव्य के आधार पर शिशुपाल का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर - शिशुपाल भी 'अग्रपूजा' खंडकाव्य का एक प्रमुख चरित्र है। वह चेदि राज्य का स्वामी है। प्रस्तुत खंडकाव्य में उसकी भूमिका खलनायक की है। वह हमें ईर्ष्यालु, क्रोधी, अविनीत और अशिष्ट व्यक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शिशुपाल का चरित्र-चित्रण इस प्रकार किया जा सकता है–
श्री कृष्ण का शत्रु –
शिशुपाल और श्री कृष्ण के बीच पुरानी शत्रुता है। शिशुपाल रूक्मी की बहन रुक्मणी से विवाह करना चाहता था, किंतु रुक्मणी श्री कृष्ण को हृदय से पति रूप में वरण कर चुकी थीं। इसलिए श्री कृष्ण रुक्मणी का हरण कर द्वारका ले आए और वहां उन्होंने उससे विवाह कर लिया। इस घटना से शिशुपाल श्री कृष्ण को अपना शत्रु मानने लगा।
ईर्ष्यालु व्यक्ति –
शिशुपाल स्वभाव से बहुत ईर्ष्यालु व्यक्ति हैं। इंद्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण का अधिक सम्मान होना उसे कांटे की तरह चुभ रहा था। इसी कारण ईर्ष्या की आग में जलते हुए वह अकारण ही श्री कृष्ण के प्रति जहर उगलता हुआ अपशब्दों का प्रयोग करता है–
आज यहां हैं ज्ञानी योगी, पंडित, ऋषि, नृप, अनुपम वीर।
फिर भी अग्र अर्चना होगी, उसकी जो गोपाल अहीर।।
शिशुपाल ईर्ष्यावश श्रीकृष्ण को नाचने, कूदने वाला, छलिया और अशिष्ट भी बतलाता है।
क्रोधी और अभिमानी –
शिशुपाल में क्रोध और अभिमान का भाव कूट-कूटकर भरा था। वह भरी सभा में सीना तानकर श्रीकृष्ण की ओर हाथापाई के लिए बढ़ता है और उन्हें भला-बुरा कहकर ललकारता है –
वह बोला मायावी, छलिया, इंद्रजाल अब करके बंद।
आ सम्मुख तू बच ना सकेगा, करके ये सारे छल छंद।।
उसके अभिमानी स्वभाव के कारण ही उस पर भीष्म के उपदेश और सहदेव की सूझ-बूझ का कोई प्रभाव नहीं होता।
अशिष्ट –
शिशुपाल की वाणी में दूसरों के प्रति शिष्टता का अभाव है। वह जहां एक ओर अग्रपूजा के लिए श्री कृष्ण का नाम प्रस्तावित करने को सहदेव का लड़कपन बताता है, वहां दूसरी ओर भीष्म की बुद्धि को भी मारी गई कहता है–
लगता सठिया गये भीष्म हैं, मारी गई बुद्धि भरपूर।
तभी अनर्गल बातें करते, करो यहां से इनको दूर।।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिशुपाल का चरित्र एक खलनायक के रूप में अनेक दोषों से भरा है।
प्रश्न 7. 'अग्रपूजा' खंडकाव्य के आधार पर युधिष्ठिर के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
'अग्रपूजा' खंडकाव्य के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर - युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे। इंद्रप्रस्थ में उनका ही राज्याभिषेक किया जाता है। सभी राजा उनकी अधीनता को स्वीकार करते हैं तथा वे ही राजसूय यज्ञ संपन्न कराते हैं। इस प्रकार युधिष्ठिर 'अग्रपूजा' काव्य के प्रमुख पात्र हैं। उनका चरित्र मानव आदर्शों की स्थापना करने वाला है, जिसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं–
विनम्र स्वभाव –
युधिष्ठिर विनम्र स्वभाव के हैं। इंद्रप्रस्थ में गुरु द्रोणाचार्य के प्रवेश करते ही वे विनय भाव से उनके चरणों में गिर पड़ते हैं। राजसूय यज्ञ के समय श्री कृष्ण के आने पर वे उनका रथ स्वयं हांककर उन्हें नगर में प्रवेश कराते हैं। यज्ञ के समाप्त होने पर वे तत्वज्ञानी ऋषियों को पर्याप्त दान-दक्षिणा देते हैं और उनके आशीर्वाद को विनय-भाव से स्वीकार करते हैं।
आदर्श शासक –
महाराज युधिष्ठिर एक शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे रामराज्य को आदर्श मानकर प्रजा को सुखी-संपन्न बनाने का प्रयत्न करते हैं–
था प्रयत्न उनका यह निशदिन, लायें भू पर स्वर्ग उतार।
वे भारत के सभी राजाओं को जीतकर शक्तिशाली भारत राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
धार्मिक तथा सत्यप्रेमी –
युधिष्ठिर धार्मिक और सत्यप्रेमी हैं। वे प्रत्येक कार्य को धर्म और न्याय के अनुसार करते हैं और सदैव सत्य के पथ पर चलते हैं। फोन के संबंध में स्वयं नारद जी कहते हैं–
बोल उठे गदगद वाणी से – धर्मराज, जीवन तव धन्य।
धरती में सत्कर्म - निरत जन नहीं दीखता तुम-सा अन्य।।
राजसूय यज्ञ को संपन्न करके वे अपने पिता की इच्छा को पूर्ण करते हैं।
उदार हृदय –
युधिष्ठिर अत्यंत उदार हैं। वे राज्य के लिए दुर्योधन से झगड़ा नहीं करते और खांडव वन के भाग को ही राज्य के रूप में प्रसन्नता से स्वीकार कर लेते हैं। वे किसी राजा के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाते। उन्होंने शिशुपाल और जरासंध का वध होने पर भी उनके राज्य को उनके पुत्रों को सौंप दिया। वे राजसूय यज्ञ में उदारतापूर्वक ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं।
इस प्रकार युधिष्ठिर परम विनीत, धर्मात्मा, सत्य-प्रेमी, उदार हृदय एवं सुयोग्य शासक हैं।
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