कर्ण खंडकाव्य का सारांश || Karna khandkavya ka Saransh
कर्ण खंडकाव्य -
कर्ण खंडकाव्य से संबंधित जितने भी प्रश्न आपके यूपी बोर्ड में पूछे जाते हैं सभी प्रश्नों के उत्तर आपको यहीं पर मिलेंगे जैसे - सारांश, श्री कृष्ण और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप, सभी सर्गों का सारांश, कर्ण द्वारा कवच कुंडल दान, कर्ण वध, कर्ण का चरित्र चित्रण, श्रीकृष्ण का चरित्र चित्रण,प्रमुख नारी पात्र कुंती का चरित्र चित्रण परीक्षा में आए इत्यादि प्रश्नों के उत्तर
प्रश्न 1. 'कर्ण' खंडकाव्य की कथावस्तु (सारांश) संक्षेप में लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर श्री कृष्ण और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप का उद्धरण देते हुए चतुर्थ सर्ग की कथा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के प्रथम सर्ग का कथासार लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के 'द्दूत सभा में द्रोपदी' सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर कर्ण के जीवन में घटी प्रमुख घटनाएं संक्षेप में लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के तृतीय तथा चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के मां बेटा नामक पंचम सर्वे की कथा सारांश (कथानक) लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के षष्ठ सर्ग कर्ण वध की कथा को संक्षेप में लिखिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के सप्तम सर्ग का कथासार लिखिए।
उत्तर - श्री केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' नामक खंडकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभक्त है। इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से संबंधित है।
प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) –
प्रथम सर्ग में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुंती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरुप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसने लोक लाज और कुल की मर्यादा के भय से उस शिशु को नदी की धारा में बहा दिया। निःसंतान सारथी अधिरथ उस बालक को घर ले आया। उसके द्वारा पाले जाने के कारण वह 'सूत-पुत्र' कहलाया।
एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में पहुंच गया। सूत पुत्र होने के कारण वहां उसकी वीरता का उपहास किया गया और उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया गया। पांडवों से ईर्ष्या रखने वाले दुर्योधन ने स्वार्थवश उसे प्रेम और सम्मान प्रदान किया। इससे कर्ण के आहत मन को कुछ धीरज एवं बल मिला।
द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण मत्स्य-वेध करने उठा, तब द्रौपदी ने भी हीन जाति का कहकर उसे अपमानित किया। इस प्रकार दूसरी बार एक नारी द्वारा अपमानित होकर भी वह मौन ही रहा, किंतु क्रोध की चिंगारी उसके नेत्रों से फूटने लगी।
द्वितीय सर्ग (द्दूत सभा में द्रोपदी) –
द्वितीय सर्ग में अर्जुन द्वारा मत्स्य-वेध से लेकर द्रौपदी के चीर-हरण तक का कथानक वर्णित है। द्रौपदी के स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके द्रौपदी का वरण कर लिया। द्रौपदी पांचों पांडवों की वधू बनकर आ गई। विदुर के समझाने-बुझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिल गया।
युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ में आमंत्रित दुर्योधन को जल-स्थल का भ्रम हो गया। इस पर द्रौपदी ने व्यंग किया, जिस पर दुर्योधन क्षोभ से भर गया।
वापस आकर उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर सगुनी की सलाह से द्दूत-क्रीडा की योजना बनाई और पांडवों को आमंत्रित किया। इस द्दूत-क्रीडा में युधिष्ठिर; सारा राजपाट, भाइयों और अंत में द्रौपदी को भी हार बैठे। कर्ण और दुर्योधन ने बदले का उपयुक्त अवसर जानकर द्रौपदी को निर्वस्त्र करने को कहा। कर्ण को अपना प्रतिशोध लेना था। वह बोला–पांच पतियों वाली कुलवधू कैसी? कर्ण ने दु:शासन को इस प्रकार उत्तेजित तो किया परंतु बाद में वह अपने इस दुष्कृत्य के लिए आजीवन पछताता रहा।
तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच-कुंडल दान) –
तृतीय सर्ग में दुर्योधन द्वारा वैष्णव-यज्ञ करने से लेकर, कर्ण द्वारा कवच-कुंडल दान करने तक का कथानक है। दुर्योधन ने चक्रवर्ती सम्राट का पद ग्रहण करने के लिए वैष्णव-यज्ञ किया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं जब तक अर्जुन को नहीं मार दूंगा, तब तक कोई भी याचक मुझसे जो कुछ भी मांगेगा, मैं वही दान दे दूंगा, मांस मदिरा का सेवन नहीं करूंगा और अपने चरण भी नहीं धुलवाऊंगा। अर्जुन इंद्र के पुत्र थे; अतः इंद्र ब्राह्मण का वेश बनाकर कर्ण के पास गए और कवच-कुंडल का दान मांगा।
कर्ण ने इंद्र की याचना पर जन्म से प्राप्त अपने दिव्य कवच-कुंडल सहर्ष शरीर से काटकर दे दिए। ये ही कर्ण के जीवन-रक्षा के सुदृढ़ आधार थे।
चतुर्थ सर्ग (श्रीकृष्ण और कर्ण) –
चतुर्थ सर्ग में श्री कृष्ण द्वारा कौरव-पांडवों का समझौता कराने, समझौता ना होने पर कर्ण को कौरव पक्ष से युद्ध ना करने के लिए समझाने के असफल प्रयास का वर्णन है। श्री कृष्ण पांडवों की ओर से कौरवों की राजसभा में दूत के रूप में न्याय मांगने गए, किंतु दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि युद्ध के अतिरिक्त अब और कोई रास्ता नहीं है। श्री कृष्ण निराश होकर कर्ण को समझाते हैं कि तुम पांडवों के भाई हो; अतः अपने भाइयों के पक्ष का समर्थन करो।
कर्ण की आंखों में वेदना के आंसू उमड़ आए। वह बोला कि मुझे आज तक घृणा, अनादर और अपमान ही मिला है। आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी मां है।
इन्हें छोड़कर मैं कुंती को अपनी मां के रूप में ग्रहण नहीं कर सकता। मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न नहीं बन सकता। लेकिन आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहिएगा। कि मैं उनका बड़ा भाई हूं, अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे। बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अतः इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित करूंगा।
पंचम सर्ग (मां-बेटा) –
पंचम सर्ग में कुंती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। पांडवों के लिए चिंतित कुंती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुंचती है। कुंती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने अपने जीवन भर की पीड़ा को साकार करते हुए अपने हृदय की ज्वाला मां के सम्मुख स्पष्ट कर दी।
वह बोला की मां होकर तुमने मेरे साथ छल किया। मैं अपने मित्र दुर्योधन का कृतज्ञ हूं, मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। यह विडंबना ही होगी कि एक माता अपने पुत्र के द्वार से खाली हाथ लौट जाए। मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि मैं अर्जुन के अतिरिक्त किसी पांडव को नहीं मारूंगा।
षष्ठ सर्ग (कर्ण-वध) –
षष्ठ सर्ग में महाभारत का युद्ध आरंभ होने से लेकर कर्ण की मृत्यु तक की कथा का वर्णन है। महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ। भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति बनाए गए। वे इस शर्त पर सेनापति बने कि वे कर्ण का सहयोग नहीं लेंगे। युद्ध के दसवें दिन घायल होकर शर-शैय्या पर पड़ने के बाद कर्ण के भीष्म पितामह के पास पहुंचने पर उन्होंने उसको भर आंख निहारने की इच्छा प्रकट की तथा उसे दानवीर, धर्मवीर और महावीर बतलाया।
भीष्मा पितामह ने कहा कि तुम भी अर्जुन आदि की तरह कुंती के ही पुत्र हो। हमारी इच्छा यही है कि तुम पांडवों से मिल जाओ। कर्ण ने अपने को प्रतिज्ञाबद्ध बताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। उसने पितामह से कहा कि भले ही उस ओर कृष्ण हों, किंतु अर्जुन को मारने हेतु मैं हर प्रयास करूंगा। यह सुनकर पितामह ने उसे अपने शस्त्रास्त्र उठाकर दुर्योधन का स्वप्न पूर्ण करने के लिए कहा।
भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति नियुक्त किया गया। 15वे दिन वे भी वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के 16वे दिन कर्ण कौरव दल के सेनापति बने। उनकी भयंकर बाण-वर्षा से पांडव विचलित होने लगे, तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयंकर मायापूर्ण आकाश युद्ध करता हुआ कौरव सेना पर टूट पड़ा। कर्ण ने अमोघ-शक्ति का प्रहार कर घटोत्कच को मार डाला। इस अमोघ शक्ति का प्रयोग वह केवल अर्जुन पर करना चाहता था। अचानक कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया। कर्ण रथ से उतरकर स्वयं पहिया निकालने लगा। तभी श्री कृष्ण का आदेश पाते ही अर्जुन ने नि:शस्त्र कर्ण का बाण-प्रहार से बध कर दिया।
सप्तम सर्ग (जलांजलि) –
सप्तम सर्ग में युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा कर्ण को जलांजलि देने की कथा का वर्णन है। कर्ण के वीरगति प्राप्त करते ही कौरव सेना का मानो प्रदीप बुझ गया। वे शक्तिहीन हो गए। सेना अस्त-व्यस्त हो गई। कर्ण के बाद शल्य और दुर्योधन भी मारे गए। युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को जलदान किया। तभी कुंती की ममता उमड़ पड़ी और उसने युधिष्ठिर से कर्ण को भाई के रूप में जलदान करने का आग्रह किया।
युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर कुंती ने कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट कर दिया। यह जानकर कि कर्ण उनके बड़े भाई थे, युधिष्ठिर का मन भर आया और वे बोले कि मां! वे हमारे अग्रज थे। कर्ण जैसे महामहिम, दानवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, दृढ़-चरित्र, समर-धीर, अद्वितीय तेजयुक्त भाई को पाकर कौन धन्य नहीं होता। ''उन्होंने कठोर शब्दों में कहा, ''तुम्हारे द्वारा इस रहस्य को छिपाने के कारण ही वे जीवन भर अपमान का घूंट पीते रहे।'' युधिष्ठिर के हृदय की इस करूण व्यंजना के साथ ही खंडकाव्य समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 2. 'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर कर्ण की वीरता और त्याग पर प्रकाश डालिए।
अथवा
'कर्ण' खंडकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताएं लिखिए।
उत्तर - श्री केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' नामक खंडकाव्य का नायक महाभारत का अजेय योद्धा 'कर्ण' है। इस काव्य में कर्ण के जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं का वर्णन है। कर्ण की वीरता और उसके जीवन के करूण पक्ष का वर्णन करना ही कवि का लक्ष्य है। उसके चरित्र की विशेषताएं इस प्रकार है–
अद्धितीय तेजवान –
कर्ण सूर्य-पुत्र है; अतः स्वभावत: तेजस्वी है। उसका कमलमुख राजकुमारों की शोभा का हरण करने वाला है। कुंती भी उसके तेजस्वी व्यक्तित्व को देखकर विस्मित और गदगद हो गई थी। युधिष्ठिर जलांजलि सर्ग में कहते हैं–
अद्धितीय था तेज, और अनुपम था उसका ओज।
हाय कहां मैं पाऊं उसका पावन चरण-सरोज।।
स्नेह और ममता का भूखा –
कर्ण जीवनभर अपनी माता, भाई और गुरुजनों का स्नेह न पा सका। उनसे उसे केवल लांछन और तिरस्कार ही मिला। उसका हृदय सदा मां की ममता पाने को तरसता रहा। वह कुंती से कहता है–
यों न उपेक्षित होता मैं,यों भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता।।
अद्धितीय दानी –
कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। उसने प्रण किया था कि जब तक वह अर्जुन का वध नहीं कर लेगा, तब तक जो भी याचक उससे जो कुछ मांगेगा, वही देगा। उसके पिता सूर्य ने समझाया कि वह कपटी इंद्र को अपने कवच-कुंडल देकर अपनी शक्ति क्षीण न करे, परंतु उसने सहर्ष इंद्र को अपने कवच-कुंडल पकड़ा दिए। वह कहता है–
चाहे पलट जाए पल भर में महाकाल की धारा।
वीर कर्ण का किंतु न झूठा हो सकता प्रण प्यारा।।
दृढ़-प्रतिज्ञ –
कर्ण ने जो भी प्रण किया, उसे पूरा किया। अर्जुन का वध होने तक उसने दान का व्रत लिया था, जिस उसने अपने कवच-कुंडल देकर भी पूर्ण किया। कर्ण ने कुंती को चारों भाइयों की रक्षा का वचन दिया था, उसे भी उसने युद्ध के समय में निभाया।
सदा जागता रहा, कर्ण का प्रण, न कभी सो सकता।
अजेय योद्धा –
कर्ण महान पराक्रमी और अजेय योद्धा था। उसके रण-कौशल से सभी परिचित थे। अर्जुन के वध की उसकी प्रतिज्ञा सुनकर दुर्योधन को प्रसन्नता और पांडवों को भय उत्पन्न हुआ। कृष्ण भी कर्ण की युद्ध कुशलता से परिचित थे; अतः अर्जुन को नि:शस्त्र कर्ण पर धर्म-विरुद्ध प्रहार करने का आदेश दिया।
विवेकी और कृतज्ञ –
कृष्ण ने कर्ण को पांडवों का पक्ष लेने के लिए बहुत समझाया, किंतु उसने उपकारी मित्र दुर्योधन से छल करना उचित नहीं समझा। वह दुर्योधन के उपकार को ना भूलकर आजीवन उसके साथ रहता है -
मैं कृतज्ञ हूं दुर्योधन का, उपकारों से हारा ।
राजपाट उसके चरणों पर चुप धर दूंगा सारा ।।
पश्चाताप से युक्त –
कर्ण को जब यह पता चला कि द्रौपदी उसके छोटे भाइयों की पत्नी है। जिसका उसने भरी सभा में अपमान कराया था तो वह आत्मग्लानि से पीड़ित होता है -
धिक् कृतज्ञता को जिसने, ऐसा दुष्कर्म कराया। प्रायश्चित करूंगा केशव, छोड़ नीच यह काया ।।
करुणामय जीवन –
कर्ण का संपूर्ण जीवन करुणा से पूर्ण था। जन्म होते ही उसे माता ने त्याग दिया। राजभवन में सूत पुत्र होने के कारण उसे अपमानित होना पड़ा। द्रौपदी के द्वारा किए गए अपमान का घूंट पीना पड़ा। जीवन भर माता, भाई और गुरुजनों के स्नेह से वंचित रहना पड़ा। सगे भाइयों के विरुद्ध हथियार उठाना पड़ा । अजेय योद्धा होते हुए भी वह अन्याय पूर्वक मारा गया। इस प्रकार पूरे काव्य में वीर कर्ण के जीवन का करुण पक्ष ही उभारा गया है।
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि कर्ण महाभारत के वीरों का सिरमौर है, फिर भी उसे अपमान, तिरस्कार और छल प्रपंच का शिकार होना पड़ा। इस प्रकार कर्ण के जीवन का करुण पक्ष अत्यधिक मार्मिक है, जो मन मस्तिष्क को प्रभावित किए बिना नहीं रहता।
प्रश्न 3. 'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर प्रमुख नारी पात्र 'कुंती' का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर - कविवर केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' खंडकाव्य के कुंती प्रमुख स्त्री पात्र हैं। वह महाराज पांडु की पत्नी तथा पांडवों की माता है। खंडकाव्य से उनके चरित्र के निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती हैं –
अभिशप्त माता –
खंडकाव्य के प्रारंभ में ही कुंती एक कुंवारी मां की शापित स्थिति में सम्मुख आती हैं, जो सामाजिक निंदा और भय से व्याकुल हैं। अपने नवजात पुत्र के प्रति उसके हृदय में ममता का अजस्र स्रोत फूट रहा है, किंतु वह लोक लाज के भय से विवश होकर अपने पुत्र को गंगा नदी की धारा में बहा देती है।
एक दु:खिया मां –
खंडकाव्य में कुंती को एक दुखी मां के रूप में दर्शाया गया है। उसके पुत्र पांडवों को उनका राज्य नहीं मिल रहा है तथा विवश होकर उनको कौरवों से युद्ध करना पड़ रहा है। कुंती इससे भयभीत तथा दुःखी है। वह कर्ण के पास जाती हैं और उस पर उसकी मां होने का पूरा राज खोल देती है। कर्ण उसे ताना मारता है, दुर्योधन का साथ ना छोड़ने को कहता है तथा अर्जुन का वध करने की अपनी प्रतिज्ञा को भी दोहराता है अंततः उदास तथा दुःखी होकर कुंती वापस लौट आती है।
चिंतित मां –
कौरव और पांडवों में युद्ध होने वाला है। कर्ण अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा कर चुका है। कुंती इस चिंता में अति व्याकुल हैं कि युद्ध भूमि में उसके पुत्र ही एक दूसरे के विरुद्ध लड़ेंगे और मृत्यु को प्राप्त होगे।
ममतामयी मां –
'कर्ण' खंडकाव्य में कुंती के मातृत्व की बहुत अच्छी झांकी देखने को मिलती है। वह एक कुंवारी मां है। जो अपनी ममता का गला स्वयं ही घोटती हैं। महाभारत के युद्ध में जब वह देखती हैं कि भाई-भाई ही एक दूसरे को मारने हेतु तत्पर हैं तब वह अपने पुत्र पांडवों की रक्षा के लिए तब वह अपने पुत्र के पास जाती हैं और उससे तिरस्कृत भी होती हैं। फिर भी कर्ण के प्रति उसका वात्सल्य भाव रोके नहीं रुकता वह कर्ण से कहती हैं —
मां कहकर झंकृत कर दो मेरे प्राणों का तार ।
जलदान के अवसर पर वह युधिष्ठिर से कर्ण का जलदान करने के लिए आग्रह करती है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुंती परिस्थितियों की मारी एक सच्ची मां है जो अपनी ममता को गहरा दफनाकर भी दफना नहीं पाती। उसका मातृरूप कई रूपों में हमारे सामने आता है, जो भारतीय नारी की सामाजिक और परिवारिक व्यवस्थाओं को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
प्रश्न 4. 'कर्ण' खंडकाव्य के आधार पर श्री कृष्ण का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर - श्रीकृष्ण 'कर्ण' खंडकाव्य के एक उदात्त चरित्र महापुरुष है। वे एक अवतारी पुरुष और भगवान के रूप में माने जाते हैं। अपने अलौकिक चरित्र से उन्होंने भारतीय जनमानस को चमत्कृत किया है, तथा अपने महान एवं अनुकरणीय चरित्र से लोगों को अत्यंत प्रभावित भी किया है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
कूटनीतिज्ञ –
कर्ण खंड काव्य की प्रमुख घटनाओं में श्री कृष्ण का विशेष हाथ है। वह पांडवों के परमहितैषी हैं। कृष्ण हर पल उनका ध्यान रखते हैं तथा समय-समय पर उन्हें सचेत भी करते हैं। शत्रु को नीचा दिखाना साम-दाम-दंड-भेद की नीति द्वारा किसी भी प्रकार से उसे वश में करना वे भली भांति जानते हैं। कर्ण की शक्ति को जानकर ही वे जहां उसे साम नीति द्वारा पांडवों के पक्ष में करने का प्रयास करते हैं। वही दुर्योधन के अवगुणों को बताने में भेद-नीति अपनाते हैं। वे कर्ण से कहते हैं –
दुर्योधन का साथ न दो, वह रणोन्मत्त पागल है ।
द्वेष, दम्भ से भरा हुआ, अति कुटिल और चंचल है ॥
दाम नीति का प्रयोग करते हुए वे कर्ण को प्रलोभन देते हैं -
चलो तुम्हें सम्राट बनाऊ, अखिल विश्व के क्षण में।
कर्ण जब उनकी सभी बातों को ठुकरा देता है तो कृष्ण उसे अहंकारी भी बतलाते हैं निश्चित ही वे सभी प्रकार के नीतियों में निपुण है।
परिस्थितियों के मर्मज्ञ –
श्री कृष्ण तो भगवान है। अभी त्रिकालदर्शी हैं। भविष्य दृष्टा है। तथा परिस्थितियों को भली प्रकार समझने में सक्षम है वह भली भांति जानते हैं कि धर्म युद्ध में कर्ण को कोई मान नहीं सकता। तभी तो वह समय आने पर अर्जुन को कर्ण का वध करने का संकेत देते हैं वे कहते हैं -
बाण चला दो, चूक गए तो लूटी सुकीर्ति सजोई ।
पांडवों के रक्षक –
श्री कृष्ण पांडवों के परम हितैषी हैं। वे हर परिस्थिति में पांडवों की रक्षा करते हैं क्योंकि पांडव सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं। जिसकी स्थापना करने के लिए ही पृथ्वी पर उनका अवतार हुआ है। युद्ध में अर्जुन की रक्षा के लिए ही घटोत्कच को बुलाते हैं और कर्ण के हाथ से उसका वध करवाकर अर्जुन का जीवन सुरक्षित करते हैं।
पराक्रम प्रेमी –
कृष्ण पराक्रमी एवं शूरवीर पुरुषों की निष्पक्ष होकर प्रशंसा करते हैं। वह कर्ण को एक अपराजेय योद्धा समझते हैं तथा उसके शौर्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं -
धर्मप्रिय, धृति-धर्म धुरी को तुम धारण करते हो।
वीर, धनुर्धर धर्मभाव तुम भूत भर में भरते हो ।।
मायावी –
कृष्ण की माया से महाभारत के सभी योद्धा परिचित हैं। वह महाभारत युद्ध में केवल अर्जुन के रथ के सारथी बने हैं और उन्होंने अस्त्र-शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा भी की है किंतु फिर भी सभी वीर योद्धा उनसे भयभीत रहते हैं। जिन बातों को बड़े बड़े वीर प्रयत्न करके भी नहीं जान पाते उन बातों को कृष्ण सहज रूप में ही जान लेते हैं। कर्ण भी कहता है कि कृष्ण की माया अर्जुन को तो छाया की तरह घेरे रहती है –
घेरे रहती है अर्जुन को छाया सदा तुम्हारी ।
इस प्रकार से कृष्ण का चरित अलौकिक दिव्य तथा अन्याय सद्गुणों से युक्त है।
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