मीराबाई का जीवन परिचय || Mirabai ka Jivan Parichay
जीवन परिचय
मीराबाई
संक्षिप्त परिचय
मीराबाई का जन्म सन 1503 ई. संवत् (1560) में मेड़तिया के राठौर रत्न सिंह के यहां हुआ माना जाता है। उदयपुर के महाराज भोजराज से उनका विवाह हुआ था। इनकी अनन्य कृष्ण भक्ति और संत समागम से राणा परिवार रुष्ट हो गया था। कहते हैं कि एक बार मीरा को विष भी दिया गया किंतु उन पर उसका असर नहीं हुआ।
मीराबाई के नाम से जिन कृतियों का उल्लेख मिलता है उनके नाम है - 'नरसी जी रो माहेरो','गीत गोविंद की टीका','राग गोविंद','सोरठ के पद','मीराबाई का मलार',' गर्वागीत','राग विहाग और फुटकर पद। भौतिक जीवन से निराश मेरा की एकांत निष्ठा,'गिरधर गोपाल' में केंद्रित है। 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरे ना कोई कह कर' मीरा ने कृष्ण के प्रति अपने समर्पण भाव को व्यक्त किया है। भक्ति का यही भी एक लक्षण है।
मीरा के पदों के वचन और गायन से संकेत मिलता है कि मीरा को भक्ति भावना अंतः करण से स्फूर्त है। उन्होंने मुक्त भाव से सभी भक्ति संप्रदाय से प्रभाव ग्रहण किया है। उनकी रचनाओं में माधुर्य समन्विन दाम्पत्य भाव है। मीरा का विरह पक्ष साहित्य की दृष्टि से मार्मिक है। उनके आराध्य तो सगुण साकार श्री कृष्ण है। उनके अधिकांश पद राजस्थानी भाषा में लिखे गए हैं, साथ ही ब्रज भाषा, गुजराती और खड़ी बोली से प्रभावित है। उन्होंने प्राय: मात्रिक छंदों का ही प्रयोग किया है। उनकी भक्ति में दैन्य तथा माधुर्य भाव की प्रधानता है। मीरा के पद गेय हैं। इनमें विभिन्न अलंकारों की छटा देखी जा सकती है। भक्ति काल के स्वर्ण युग में मीरा के भक्ति भाव से संपन्न पद आज भी अलग ही जगमगाती दिखाई देते हैं।
साहित्यिक परिचय (Sahityik Parichay) -
मीरा बचपन से ही कृष्ण भक्त थी। गोपियों की भांति मीरा माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थी। वे कृष्ण को ही अपना पति कहती थी और लोक लाज खोकर कृष्ण के प्रेम में लीन रहती थी। बचपन से ही अपना अधिक समय संत महात्माओं के सत्संग में व्यतीत करती थी। मंदिर में जाकर अपने आराध्य की प्रतिमा के समक्ष मीराबाई आनंद होकर नृत्य करती थी। उनका इस प्रकार का व्यवहार उदयपुर की राज मर्यादा के प्रतिकूल था। अतः परिवार के लोग उनसे रुष्ट रहते थे।
रचनाएं एवं कृतियां (Rachnaen Avm Kritiyan) -
मेरा जिन पदों को गाती थी तथा भाव विभोर होकर नृत्य करती थी। वे ही गेय पद उनकी रचना का कहलाए। नरसीजी का मायरा, राग गोविंद, राग सोरठ के पद, गीत गोविंद की टीका, मीराबाई की मल्हार, राग विहाग एवं फुटकर पद तथा गरवा गीत आदि मीरा की प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
काव्य शैली या भाषा शैली (Kavya shaili ya Bhasha shaili) -
मीराबाई के काव्य में उनके हृदय की सरलता, तरलता तथा निश्छलता का स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। मीराबाई ने गीती काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्ण भक्त कवियों की परंपरागत पद शैली को अपनाया। मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बंधे हुए हैं। उनके गीतों में उनकी आवेशपूर्ण आत्माभिव्यक्ति मिलती है। प्रियतम के समक्ष आत्म समर्पण की भावना तथा तन्मयता ने उनके काव्य को मार्मिक तथा प्रभावोत्पादक बना दिया है।
कृष्ण के प्रति प्रेम भाव की व्यंजना ही मीराबाई की कविता का उद्देश्य रहा है। मेरा जीवन भर कृष्ण वियोगिनी बनी रही। उनके काव्य में हृदय की आवेश पूर्ण विहलता देखने को मिलती है। मीरा की काव्य भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा के निकट है तथा उसपर राजस्थानी, गुजराती पश्चिमी हिंदी और पंजाबी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उनकी काव्य भाषा अत्यंत मधुर, सरल और प्रभावपूर्ण है। पांडित्य के प्रदर्शन करना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा। कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम ने ही उन्हें कृष्ण काव्य के समुन्नत स्थल तक पहुंचाया।
भाव पक्ष (Bhav Pach)-
मीरा ने गोपियों की तरह कृष्ण को अपना पति माना और उनकी उपासना माधुर्य भाव की भक्ति पद्धति है। मीरा का जीवन कृष्णमय था और सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी। मीरा ने - मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। कहकर पूरे समर्पण के साथ भक्ति की।
मीरा के काव्य में विरह की तीव्र मार्मिकता पाई जाती है। विनय एवं भक्ति संबंधी पद भी पाए जाते हैं। मीरा के काव्य में श्रृंगार तथा शांत रस की धारा प्रवाहित होती है।
कला पक्ष (Kala Paksh) -
मीरा कृष्ण भक्त थी। काव्य रचना उनका लक्ष्य नहीं था, इसलिए मीरा का कला पक्ष अनगढ़ है साहित्यिक ब्रजभाषा होते हुए भी उन पर राजस्थानी, गुजराती भाषा का विशेष प्रभाव है। मीरा ने गीताकाव्य की रचना की और पद शैली को अपनाया शैली माधुर्य गुण होता है। सभी पद गेय और राग में बंधा हुआ है। संगीतात्मक प्रधान है श्रंगार के दोनों पक्षों का चित्रण हुआ है। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग मिलता है। सरलता और सहायता ही मीरा के काव्य के विशेष गुण हैं।
मीराबाई की रचनाएं (Mirabai ki Rachnaen) -
मीरा ने स्वयं कुछ नहीं लिखा। कृष्ण के प्रेम में मीरा ने जो गाया वह बाद में पद्य में संकलित हो गया।
1. राग गोविंद
2. गीत गोविंद
3. गोविंद टीका
4. राग सोरठा
5. नरसीजी रो मायारा
6. मीरा की मल्हार
7. मीरा पदावली
एक कहानी के अनुसार मीराबाई के दादाजी साधु संतों का बहुत सम्मान करते थे। उनके महल में हमेशा कोई साधु संत या कोई अतिथि आता रहता था। एक बार रैदास नामक एक सन्यासी महल में आया। रैदास संत रामानंद के शिष्यों में से प्रमुख थे। जिन्होंने उत्तर भारत में वैष्णव संप्रदाय का प्रचार किया। उनके पास श्री कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति थी वह उस मूर्ति की स्वयं पूजा करते थे। मीराबाई ने उस मूर्ति को देख लिया और उसे मांगने लगी।
सन्यासी कुछ देर पश्चात महल से चले गए मगर मीरा उस मूर्ति के लिए हठ करती रही यहां तक कि वह उस मूर्ति को पाने के लिए भोजन करना छोड़ दिया, किंतु अगले दिन सुबह रैदास वापस राज महल में लौट आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की मूर्ति मीराबाई को दे दी रैदास ने कहा पिछली रात श्री कृष्ण मेरे सपने में आए और कहने लगे मेरी परम भक्त मेरे लिए रो रही है। जाओ उसे यह मूर्ति दे दो। यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करूं इसलिए मैं यह मूर्ति मीरा को देने आया हूं, मीरा एक बहुत बड़ी कृष्ण भक्त है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह कहानी केवल कल्पना नहीं अपितु सत्य घटना है मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा है। मेरा ध्यान हरि की ओर है और मैं हरी के साथ एक रूप हो गई हूं। मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रही हूं। मेरे गुरु रैदास ने मुझे गुरु मंत्र दिया है। हरी नाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराई तक अपना स्थान जमा लिया है।
मीराबाई का विवाह और पति की मृत्यु (Mirabai ka Vivah aur Pati ki Mrutyu) -
मीराबाई मेड़ता के रतन सिंह राठौर की पुत्री थी . इनका विवाह 1516 ईसवी में राणा सांगा के जेष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। किंतु कुछ समय पश्चात भोजराज की मृत्यु हो गई। इस विपत्ति में खानवा के युद्ध 1527 में राणा सांगा की ओर से लड़ते हुए इनके पिता रतन सिंह युद्ध में मारे गए। कुछ समय पश्चात राणा सांगा की भी हत्या हो गई। इनका अधिकांश समय सत्संग और भजन में व्यतीत होना राज कुल की मर्यादाओं के प्रतिकूल अनुभव कर मेवाड़ के राजा विक्रमादित्य द्वारा मीरा की जीवन लीला समाप्त करने के प्रयास भी अंत साक्ष्य मिलते हैं। भौतिक जीवन से विरक्त मीराबाई राजघर छोड़कर वृंदावन चली गई।
मीराबाई का घर से निकाला जाना (Mirabai ka Ghar se nikala Jana) -
मीराबाई का कृष्ण भक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गई। वह जहां जाती थी, वहां लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था -
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषण - हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक समुदाई ॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई ।
साधु सग अरु भजन करत मांहि देत कलेस महाई ।।
मेरे माता पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई ।
हमको कहा उचित करिबो है , सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जवाब तुलसीदास ने इस प्रकार दिया -
जाके प्रिय न राम बैदेही ।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा ॥
नाते सबै राम के मनियत सुह्यद सुसंख्य जहां लौ ॥
अंजनी कहां आंखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ ॥
मीराबाई की मृत्यु (Mirabai ki Mrutyu) -
स्पष्ट रूप से मीराबाई की मृत्यु के विषय में विवरण उपलब्ध नहीं है। उनकी मृत्यु आज भी एक रहे थे इस संबंध में अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं। विद्वानों की राय भी मीराबाई की मौत के बारे में अलग-अलग है। लूनवा के भूरदान का मानना है कि मीरा की मृत्यु वर्ष 1546 में हुई जबकि एक अन्य इतिहासकार डॉ शेखावत मीराबाई की मृत्यु का वर्ष 1548 बताते हैं। मृत्यु स्थान के बारे में सभी की राय लगभग एक ही है मीरा ने अपना आखिरी वक्त द्वारिका में बिताया और वही उनकी मृत्यु हो गई। वर्ष 1533 के आसपास मीरा ने मेड़ता में रहना शुरू किया, अगले ही वर्ष बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। मीराबाई राज भवन का त्याग कर वृंदावन की यात्रा पर चली गई। लंबे समय तक यह उत्तर भारत में यात्रा करती रही।
वर्ष 1546 में ये द्वारिका चली गई। सर्वाधिक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार वे द्वारिका में कृष्ण भक्ति में लीन रहे और यही मूर्ति में समा गई। मीरा के बारे में यह भी मानता है कि वह पूर्व जन्म में कृष्ण की प्रेमिका गोपी और राधा की सहेली थी। राधा से कृष्ण ने विवाह किया तो मीरा ने स्वयं को घर में बंद कर दिया और तड़प तड़प कर जान दे दी। अगले जन्म में कृष्ण के प्रेयसी के रूप में इन्होंने मेड़ता में जन्म लिया, स्वयं मीराबाई अपने एक दोहे में उल्लेख करती हैं। ऐसा माना जाता है कि बहुत दिनों तक वृंदावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गई जहां सन 1560 में वे भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति में समा गई।
मीराबाई की जयंती (Mirabai ki Jayanti) -
भगवान कृष्ण की सबसे बड़ी प्रेमिका और भक्त कवयित्री मीरा ने ना केवल संपूर्ण जीवन में कृष्ण की रट लगाए रखी बल्कि अपने शरीर का समापन भी कृष्ण की मूर्ति में समाकर किया। हिंदू कैलेंडर के मुताबिक शरद पूर्णिमा के दिन मीरा की जयंती मनाई जाती है।
उनके भजनों और पदों में भक्ति की पराकाष्ठा और निश्चल प्रेम के भाव महसूस किए जा सकते हैं। कई हिंदी फिल्मों में इनके भक्ति गीतों व पदों का प्रयोग किया गया है। प्रभु के प्रति सच्ची चाह से भक्ति की जाए तो एक दिन उन्हें पाया जा सकता है। यही मीरा के जीवन से हमें सीखने को मिलता है।
मीराबाई पर 10 लाइन हिंदी में (Mirabai per 10 line) -
1. मीराबाई की जयंती हर साल अक्टूबर माह में अश्वनी मास की शरद पूर्णिमा को मनाई जाती है।
2. मीराबाई का जन्म 1503 ईस्वी में मेवाड़ के राजघराने में हुआ था।
3. वे अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी।
4. उनके पिता का नाम रतन सिंह था।
5. मीराबाई बचपन से ही कृष्ण भक्त थी।
6. मीराबाई का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ था।
7. मीराबाई के पति का नाम भोजराज था जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे।
8. इनके पति की मृत्यु विवाह के कुछ समय पश्चात ही हो गई थी।
9. मीराबाई के धार्मिक गुरु का नाम संत रविदास था।
10. ऐसा माना जाता है कि मीराबाई शरीर सहित भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा में समा गई थी।
परीक्षा उपयोगी महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Frequently Ask Question) -
1. मीरा बाई कहां की रानी थी?
उत्तर - मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेड़वा राजकुल की राजकुमारी थी। मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थी। मीरा जब केवल 2 वर्ष की थी उनकी माता की मृत्यु हो गई इसलिए उनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए और अपनी देखरेख में उनका पालन पोषण किया।
2. मीराबाई का विवाह कौन से सन में हुआ?
उत्तर - मीराबाई का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज के साथ 1516 में हुआ था।
3. मीरा का जन्म कौन सी रियासत में हुआ?
उत्तर - मीरा का जन्म स्थान बाजोली शेखावत ने अपने इस पुस्तक में लिखा है कि मीरा का जन्म स्थान तत्कालीन जोधपुर राज्य का बाजोली गांव है।
4. मीरा के जीवन के अंतिम दिन कहां व्यतीत हुए?
उत्तर - मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तौड़ में मीरा के अनुपस्थिति में हुआ पति की मृत्यु पर भी मीरा माता ने अपना सिंगार नहीं उतारा, क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी। वह विरक्त हो गए और साधु संतों की संगति में हरि कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी। पति के परलोक वास के बाद इनकी भक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती गई।
5. मीराबाई का क्या हुआ?
उत्तर - अन्य कहानियों में कहा गया है कि मीराबाई मेवाड़ के राज्य को छोड़कर तीर्थ यात्रा पर चली गई। अपने अंतिम वर्षो में मीरा द्वारका या वृंदावन में रहती थी, जहां किवदंतियों के अनुसार वह 1545 में कृष्ण की एक मूर्ति में विलय कर के चमत्कारिक रूप से गायब हो गई थी।
6. निम्नलिखित में से कौन मीराबाई के गुरु थे?
उत्तर - गुरु रैदास, एक निम्न जाति के चमड़े के कार्यकर्ता, मीराबाई के उपदेशक थे।
7. मीराबाई का विवाह कैसे हुआ?
उत्तर - मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से कर दिया गया। इस शादी के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया पर जोर देने पर वह फूट-फूट कर रोने लगी और विदाई के समय किसने की वही मूर्ति अपने साथ ले गए। जिससे उसकी माता ने उनका दूल्हा बताया था।
8. संत रानाबाई को दूसरी मीरा क्यों कहा जाता है?
उत्तर - रानाबाई को दूसरी मीरा के नाम से इसलिए जाना जाता है, क्योंकि वह भी मीराबाई के समान एक भक्तिन कवयित्री थी। उनकी रचनाएं ठेठ राजस्थानी भाषा में थी और राजस्थान में बेहद लोकप्रिय थी।
9. मीराबाई के बचपन का क्या नाम था?
उत्तर - मीराबाई के बचपन का नाम पेमल था।
10. मीराबाई के दादाजी का नाम क्या था?
उत्तर - मेड़ता के राव दूदा।
11. मीरा को सावन मनभावन क्यों लगने लगा था ?
उत्तर - मीराबाई को सावन मनभावन इसलिए अच्छा लगने लगा था, क्योंकि यह मौसम मीरा को श्रीकृष्ण के आने का एहसास कराता है इसमें प्रकृति बड़ी सुहावनी होती है इसलिए मन में उमंग भर जाती थी।
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