बिहारीलाल का जीवन परिचय || Bihari Lal ka Jivan Parichay

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बिहारीलाल का जीवन परिचय || Bihari Lal ka Jivan Parichay

बिहारीलाल का जीवन परिचय || Bihari Lal ka Jivan Parichay

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कवि बिहारीलाल का जीवन परिचय - 

कवि बिहारी लाल हिंदी साहित्य के रीति काल के प्रसिद्ध कवि रहे हैं। यह मूलतः श्रृंगार रस के कवि रहे हैं। इन्होंने सौंदर्य ,प्रेम ,श्रृंगार एवं भक्ति से परिपूर्ण काव्य रचना की है। मुगल कालीन युग के कवि होने के कारण इनकी काव्य भाषा ब्रजभाषा रही है। कवि बिहारी लाल ने जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह के दरबार के कवि के रूप में अनेक कब रचनाएं की। ऐसा कहा जाता है कि राजा जयसिंह अपनी रानी के प्रेम के कारण महल से बाहर नहीं निकलते थे और राज्य कार्य पर कोई ध्यान नहीं देते थे। तब कवि बिहारी ने एक दुआ लिखकर उसके माध्यम से उन्हें पुनः राज कार्य के लिए प्रेरित किया वह दोहा इस प्रकार है - 

" नहिं पराग मधुर मधु , नहिं विकास यहि काल .
अली कली ही सौ बंध्यो, आगे कौन हवाल ॥ "


                                 जीवन परिचय

बिहारी लाल


संक्षिप्त परिचय



        नाम

बिहारी लाल

        जन्म

1603 ई०

    जन्म-स्थान

बसुआ (गोविंदपुर गांव, ग्वालियर)

        मृत्यु

1663 ई०

  पिता का नाम

पंडित केशवराय चौबे

        शिक्षा

ग्वालियर में (काव्यशास्त्र की शिक्षा)

        आश्रय

राजा जय सिंह का दरबार

        रचना

बिहारी सतसई

  रचना के विषय

श्रंगार, भक्ति, नीतिपरक दोहे

        भाषा

ब्रज

        शैली

मुक्तक (समास शैली)

      उपलब्धि

गागर में सागर भरने की प्रतिभा।


👉 बिहारीलाल का जीवन परिचय कैसे लिखें

जीवन परिचय - कवि बिहारी जी का जन्म 1603 ई० में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविंदपुर गांव) में माना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित केशव राय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।

ये माथुर चौबे कहे जाते हैं। इनका बचपन बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ। युवावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में जाकर रहने लगे-


"जन्म ग्वालियर जानिए, खंड बुंदेले बाल।

तरुनाई आई सुधर, मथुरा बसि ससुराल।।"


बिहारी जी को अपने जीवन में अन्य कवियों की अपेक्षा बहुत ही कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा, फिर भी हिंदी साहित्य को इन्होंने काव्य-रूपी अमूल्य रत्न प्रदान किया है। बिहारी, जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के आश्रित कवि माने जाते हैं। कहा जाता है कि जयसिंह नई रानी के प्रेमवश में होकर राज-काज के प्रति अपने दायित्व भूल गए थे, तब बिहारी ने उन्हें एक दोहा लिखकर भेजा,


नहि परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।

अली कली ही सौं विंध्यौ, आगे कौन हवाल।।



जिससे प्रभावित होकर उन्होंने राज-काज में फिर से रुचि लेना शुरू कर दिया और राज दरबार में आने के पश्चात उन्होंने बिहारी को सम्मानित भी किया। आगरा आने पर बिहारी जी की भेंट रहीम से हुई। 1662 ईस्वी में बिहारी जी ने 'बिहारी सतसई' की रचना की। इसके पश्चात बिहारी जी का मन काव्य रचना से भर गया और ये भगवान की भक्ति में लग गए। 1663 ई० में ये रससिद्ध कवि पंचतत्व में विलीन हो गए।


साहित्यिक परिचय - बिहारी जी ने 700 से अधिक दोहों की रचना की, जोकि विभिन्न विषयों एवं भावों पर आधारित हैं। इन्होंने अपने एक-एक दोहे में गहन भावों को भरकर उत्कृष्ट कोटि की अभिव्यक्ति की है। बिहारी जी ने श्रंगार, भक्ति, नीति, ज्योतिष, गणित, इतिहास तथा आयुर्वेद आदि विषयों पर दोहों की रचना की है। इनके श्रंगार संबंधी दोहे अपनी सफल एवं सशक्त भावाभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट समझे जाते हैं। इन दोहों में संयोग एवं वियोग के मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। बिहारी जी के दोहों में नायिका, भेद, भाव, विभाव, अनुभाव, रस, अलंकार आदि सभी दृष्टियों से विश्वमयजनक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। कविताओं में श्रंगार रस का अधिकाधिक प्रयोग देखने को मिलता है।


कृतियां (रचनाएं) - 'बिहारी सतसई' मुक्तक शैली में रचित बिहारी जी की एकमात्र कृति है, जिसमें 723 दोहे हैं। बिहारी सतसई को 'गागर में सागर' की संज्ञा दी जाती है। वैसे तो बिहारी जी ने रचनाएं बहुत कम लिखी हैं, फिर भी विलक्षण प्रतिभा के कारण इन्हें महाकवि के पद पर प्रतिष्ठित किया गया है।


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भाषा-शैली - बिहारी जी ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा साहित्यिक होने के साथ-साथ मुहावरेदार भी है। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली के अंतर्गत ही इन्होंने 'समास शैली'  का विलक्षण प्रयोग भी किया है। इस शैली के माध्यम से ही इन्होंने दोहे जैसे छंद को भी सशक्त भावों से भर दिया है।


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हिंदी साहित्य में स्थान - बिहारी जी रीतिकाल के अद्वितीय कवि हैं। परिस्थितियों से प्रेरित होकर इन्होंने जिस साहित्य का सृजन किया, वह साहित्य की अमूल्य निधि है। बिहारी के दोहे रस के सागर हैं, कल्पना के इंद्रधनुष है व भाषा के मेघ हैं। ये हिंदी साहित्य की महान विभूति हैं, जिन्होंने अपनी एकमात्र रचना के आधार पर हिंदी साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

कई कवियों ने इनके दोहों पर आधारित अन्य छंदों की रचना की है। इनके दोहे सीधे हृदय पर प्रहार करते हैं। इनके दोहों के विषय में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है-


"सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगै, घाव करैं गंभीर।।"


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पुस्तकें - Bihari Lal books


बिहारी सतसई

• बिहारी के दोहे

• बिहारीलाल के पच्चीस दोहे


काव्य | Bihari Lal poem


• माहि सरोवर सौरभ लै

• है यह आजु बसंत समौ

• बौरसरी मधुपान छक्यो 

• नील पर कटि तट

• जानत नहिं लागि मैं

• गहि सरोवर सौरभ लै

• केसरि से बरन सुबर

• उडि गुलाल घूँघर भई

• पावस रितु वृन्दावन की

• रतनारी हो भारी ऑखड़ियाँ

• हो झालो दे छे रसिया नागर पना

• मैं अपनौ मनभावन लीनों

• सौह किये ढरकौहे से नैन

• बिरहानल दाह दहै पन ताप


बिहारीलाल के काव्य की भाषा शैली


बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूरदास की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिला है। इसके साथ ही पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू ,फारसी आदि के शब्द भी उस में आए हैं। कवि बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावो के अनुकूल ही हुआ है। उन्होंने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है।


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कवि बिहारी लाल की मृत्यु | Bihari Lal death - 


महाकवि बिहारी लाल ने अपनी काव्य रचनाओं से हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दिया है। उनके द्वारा रचित सतसई काव्य ग्रंथ ने उन्हें साहित्य में अमर कर दिया। महाकवि बिहारी लाल की मृत्यु 1663 ईसवी के लगभग मानी जाती है।


माता पिता (Mother - Father )


कविवर बिहारी जी के पिता का नाम केशवदास था। इनके पिता निम्बार्क -संप्रदाय के संत नरहरी दास के शिष्य थे |तथा इनकी माता के नाम के संबंध में कोई साक्ष्य - प्रमाण प्राप्त नहीं है |


शिक्षा -


कहा जाता है कि केशवराय इनके जन्म के सात - आठ वर्ष बाद ग्वालियर छोड़कर ओरछा चले गए | वही बिहारी ने हिंदी के सुप्रसिद्ध कविआचार्य केशवदास एक आप ग्रंथों के साथ ही संस्कृत और प्राकृत आदि का अध्ययन किया ।आगरा जा कर इन्होंने उर्दू फारसी अध्ययन किया और अब्दुल रहीम खानखाना के संपर्क में आए ।बिहारी जी को अनेक विषयों का ज्ञान था |


गुरु -


बिहारी जी के गुरु स्वामी वल्लभाचार्य जी थे।


काव्य - गुरु 


रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी जी के काव्य गुरु आचार्य केशवदास जी थे।


विवाह -


कविवर बिहारी का विवाह मथुरा के किसी ब्राह्मण की कन्या से हुआ था ।इनके कोई संतान न होने कारण इन्होंने अपने भतीजे निरंजन को गोद ले लिया था |


कबीर बिहारी का जीवन परिचय?

कवि बिहारी जी का जन्म 1603 ई० में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविंदपुर गांव) में माना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित केशव राय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।

ये माथुर चौबे कहे जाते हैं। इनका बचपन बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ। युवावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में जाकर रहने लगे


बिहारी लाल की मृत्यु कब हुई थी ?

बिहारी लाल की मृत्यु 1663 ईस्वी में हुई थी।


बिहारी लाल की भाषा क्या है?

बिहारी लाल की भाषा हिंदी ,भाषा और फारसी है।


बिहारीलाल का जन्म कब हुआ था?

बिहारीलाल का जन्म 1603 ईस्वी में हुआ था।


बिहारी के काव्य की भाषा लिखिए?

बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूरदास की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिला है। इसके साथ ही पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू ,फारसी आदि के शब्द भी उस में आए हैं। कवि बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावो के अनुकूल ही हुआ है। उन्होंने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है।


बिहारी लाल का कवि परिचय लिखें?

कवि बिहारी जी का जन्म 1603 ई० में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविंदपुर गांव) में माना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित केशव राय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।

ये माथुर चौबे कहे जाते हैं। इनका बचपन बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ। युवावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में जाकर रहने लगे-


बिहारी के आश्रय दाता कहां के राजा थे?

कविवर बिहारी जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। बिहारी हिंदी रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। जयपुर नरेश सवाई जय सिंह अपनी नई रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते थे कि वह महल से बाहर भी नहीं निकलते थे और राजकाज की ओर कोई भी ध्यान नहीं देते थे।


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